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________________ महाराष्ट्र के दिगम्बर जैन तीर्थ ३०५ पद्मावतीके अतिशयोंके समान माने जाते हैं। कहा जाता है, यहां रात्रिमें नृत्य-गानकी ध्वनि आती है । इसकी यात्रा चैत्र सुदी १५ को होती है। इस अवसरपर रथयात्रा निकलती है। गर्भगृहके सामने एक दारु-मण्डप बना हुआ है । इस मण्डपमें ४२ स्तम्भ हैं। मध्य स्तम्भोंपर जो सूक्ष्म खुदाई की गयी है, वह बेजोड़ है। लकड़ीपर इतनी भव्य और कलापूर्ण खुदाई अन्यत्र कहीं देखनेमें नहीं आयी। खुदाईमें लता, पुष्प, पशु, पक्षी, ऐरावत हाथी, बाल भगवान्को गोदमें लिये हुए इन्द्र और तीर्थंकर मूर्तियां उकेरी गयो हैं । इस मन्दिरमें एक तलप्रकोष्ठ भी है। यहाँ पाषाणको १५ मूर्तियां हैं, जिनमें ११ मूर्तियां संवत् १२७२ की हैं । ४ मूर्तियां संवत् १७१५ की हैं । यहाँको मूलनायक भगवान् पाश्र्वनाथको भूरे वर्णकी ३ फीट १ इंच अवगाहनावाली पद्मासन मूर्ति अतिशयसम्पन्न कहलाती है। मूर्तिके मस्तकके ऊपर सप्तफण सुशोभित है । इसके वक्षपर श्रीवत्स उत्कीर्ण है । इस मूर्तिके लेखके अनुसार इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा काष्ठासंघ नन्दीतटगच्छ विद्यागण रामसेनान्वयके भट्टारक प्रतापकीर्तिकी आम्नायके काष्ठासंघ नन्दीतटगच्छके भट्टारक राजकीर्ति, उनके शिष्य भट्टारक लक्ष्मीसेन, उनके शिष्य भट्टारक इन्द्रभूषणने संवत् १७१५ शक संवत् १५८० विलम्बिनाम संवत्सर माघ शुक्ला ५ सोमवारको चन्द्रप्रभ जिनालयमें काष्ठासंघ लाडवागड गच्छके अनुयायी बघेरवाल ज्ञातीय गोवाल गोत्री संघवी बापू भार्या जमुनाई ( इसके आगे उनके परिवारका नाम दिया गया है ) की ओरसे की। ___इस मन्दिरके काष्ठासंघके लक्ष्मीसेनने संवत् १७०३ में बाहुबलीकी मूर्तिको प्रतिष्ठा को। इस परम्पराके भट्टारक विजयकीर्ति इस गद्दीके अन्तिम भट्टारक थे। ब्रह्म ज्ञानसागरने 'सकल-तीर्थ-वन्दना' नामक रचनामें दो छप्पयों द्वारा यहांके चन्द्रनाथ स्वामीकी प्रशंसा की है। उन्हें रोग-शोक-भयका हरनेवाला और मनवांछित सुखका देनेवाला बताया है। __३. श्री मूलसंघ चन्द्रनाथ स्वामी बलात्कारगण दिगम्बर जैन मन्दिर-यह मन्दिर बलात्कारगणके भट्रारकोंकी गतिविधियोंका कई शताब्दी तक केन्द्र रहा। इस मन्दिरकी मख्य वेदी गर्भगृहमें सात स्तम्भोंपर आधारित मण्डपके नीचे बनी हुई है। इसमें मूलनायक भगवान् चन्द्रप्रभकी १ फुट ८ इंच ऊंची भूरे वर्णकी पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। चरण-चौकीपर चन्द्रप्रभका लांछन अर्धचन्द्र अंकित है, किन्तु लेख नहीं है। इस वेदीपर ११ धातुकी और २ पाषाणकी मूर्तियां हैं। इसके पीछेको वेदोपर पाषाणको २७ और धातुको २७ प्रतिमाएं विराजमान हैं । मन्दिरके शिखरमें भगवान् महावीरकी श्वेत पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। यहाँ पीतलके दो सहस्रकूट जिनालय हैं। ये और इनकी मूर्तियां साँचेमें ढालकर बनायी गयी हैं। एक चैत्यालयमें १००८ मूर्तियां हैं तथा दूसरे चैत्यालयमें १७२८ मूर्तियां हैं। यहांपर बलात्कारगणके भट्टारकोंकी गद्दी है। यहां अन्तिम भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति हुए। कारंजामें बलात्कार गणके भट्टारक-पीठकी स्थापना भट्टारक धर्मभूषणने की थी। ये भट्टारक धर्मचन्द्रके शिष्य थे। इन्होंने शक संवत् १५७२ में पार्श्वनाथकी, शक संवत् १५८० में नेमिनाथकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा की । भट्टारक देवेन्द्रकीतिको चरण-पादुका भी यहाँ बनी हुई है। इनका स्वर्गवास संवत् १८५० कार्तिक कृष्णा १० बुधवारको शिरडशहापुरमें हो गया था। इस मन्दिरमें हस्तलिखित शास्त्रोंका अमूल्य भण्डार है। हस्तलिखित ग्रन्थोंकी कुल संख्या ९८२ है । इनमें ताड़पत्रके ग्रन्थोंकी संख्या २५ है। इनमें कई ग्रन्थ अप्रकाशित हैं।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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