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________________ महाराष्ट्र के दिगम्बर जैन तीर्थ २९३ वर्तमान सिरपुर पाश्वनाथ तो अन्तरिक्ष पाश्वनाथ कहलाता ही है और वस्तुतः यह प्रतिमा भूमिसे एक अंगुल ऊपर अन्तरिक्षमें विराजमान है। जबकि धारवाड़के शिरूर गांव अथवा बेसिंग जिलेके सिरपुर गांवके पाश्र्वनाथ मन्दिरमें जो पाश्वनाथ-प्रतिमा हैं, वह न तो अन्तरिक्षमें स्थित है और न उन प्रतिमाओंको अन्तरिक्ष पाश्वनाथ ही कहा जाता है। धारवाड़ ( मैसूर प्रान्त ) जिलेके शिरूरके पक्षमें एक प्रमाण अभिलेख सम्बन्धी दिया जाता है, वह एक ताम्रपत्र है, जिसके अनुसार शक संवत् ६९८ (ई. स. ७७६ ) में पश्चिमी गंगवंशी नरेश श्रीपुर द्वारा श्रीपुरके जैन मन्दिरके लिए दान दिया गया। यह मन्दिर निश्चय ही गंगवाड़ी प्रदेशमें होगा। इसलिए धारवाड़ जिलेके शिरूर गांवको श्रीपुर माननेमें कोई आपत्ति नहीं है । इस सम्भावनासे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि विद्यानन्द स्वामीने जिस 'श्रीपुर पार्श्वनाथ-स्तोत्र' की रचना की है, वह श्रीपुर भी वर्तमान शिरूर गांव ही हो। ऐसा प्रतीत होता है कि गंगवाड़ीका श्रीपुर ( वह शिरूर हो अथवा अन्य कोई ) प्राचीन कालमें अत्यन्त प्रसिद्ध स्थान था और वहां कोई पाश्वनाथ मन्दिर था। उसकी ख्याति भी दूरदूर तक थी। प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् आचार्य विद्यानन्द गंगवंशी नरेश शिवमार द्वितीय ( राज्यारोहण सन् ८१०, श्रीपुरुषके पुत्र ) और राचमल्ल सत्यवाक्य (शिवमारका भतीजा, राज्यारोहण-काल सन् ८१६ ) इन दोनों नरेशोंके समकालीन थे। उनका कार्य-क्षेत्र भी प्रायः गंगवाड़ी प्रदेश ही रहा है। श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्रके रचयिता ये ही दार्शनिक आचार्य विद्यानन्द हैं अथवा वादी विद्यानन्द, यह अभी तक निर्णय नहीं हो पाया। यदि दार्शनिक आचार्य विद्यानन्द इसके रचयिता सिद्ध हो जाते हैं तो कहना होगा कि श्रीपुरके उक्त पार्श्वनाथ मन्दिरके साथ आचार्य विद्यानन्दका भी सम्बन्ध था। श्रीपुर (गंगवाड़ी) के इन पाश्वनाथके साथ एक और महत्त्वपूर्ण घटनाका सम्बन्ध बताया जाता है । वह घटना है आचार्य पात्रकेशरीकी। आचार्य पात्रकेशरी एक ब्राह्मण विद्वान् थे। उनको धारणा-शक्ति इतनी प्रबल थी कि जिस ग्रन्थ को वे दो बार पढ़ या सुन लेते थे, वह उन्हें कण्ठस्थ हो जाता था। एक दिन वे पार्श्वनाथ मन्दिरमें गये। वहां एक मनि देवागम स्तो का पाठ कर रहे थे। उस स्तोत्रको सुनकर पात्रकेशरी बड़े प्रभावित हुए। स्तोत्र समाप्त होनेपर पात्रकेशरीने उन मुनिराजसे स्तोत्रकी व्याख्या करनेके लिए कहा। मुनिराज सरल भावसे बोले"मैं इतना विद्वान् नहीं हूँ जो इस स्तोत्रकी व्याख्या कर सकूँ।" तब पात्रकेशरीने उनसे स्तोत्रका एक बार फिर पाठ करनेका अनुरोध किया। मुनिराजने उसका पुनः पाठ किया। सुनकर पात्रकेशरीको वह स्तोत्र कण्ठस्थ हो गया। वे घर जाकर उसपर विचार करने लगे, किन्तु अनुमानके विषयमें उनके मनमें कुछ सन्देह बना रहा। वे विचार करते-करते सो गये। रात्रिमें उन्हें स्वप्न दिखाई दिया। स्वप्नमें उनसे कोई कह रहा था-"तुम क्यों चिन्तित हो। प्रातः पाश्वनाथके दर्शन करते समय तुम्हारा सन्देह दूर हो जायेगा।" प्रातःकाल होनेपर वे पाश्वनाथ मन्दिरमें गये । वहां पार्श्वनाथका दर्शन करते समय उन्हें फणपर एक श्लोक अंकित दिखाई दिया। श्लोक इस प्रकार था "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । ___ नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥" श्लोक पढ़ते ही उनका सन्देह जाता रहा। उनके मनमें जैनधर्मके प्रति अगाध श्रद्धाके भाव उत्पन्न हो गये। वे विचार करने लगे-"मैंने अब तक अपना जीवन व्यर्थ ही नष्ट किया। मैं अब तक मिथ्यात्वके अन्धकारमें डूबा हुआ था। अब मेरे हृदयके चक्षु खुल गये हैं।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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