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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ of Antariksha Parswanath with that of the builder of temple Jaysingh also occurs in the record.”
-Consens Progress Report 1902, p.3 and Epigraphia Indomoslemanica, 1907-8, P. 21
Inscriptions in the C. P. & Berar, by R. B. Hiralal, p. 389
-Central Provinces & Berar District Gazettier Akola District, Vol. VIII, by C. Brown I.C. S. & A. F. Nelson I.C.S. ने भी संवत् ५५५ का समर्थन किया है।
भ्रान्त धारणाएँ
श्रीपुरके पार्श्वनाथकी मूर्ति अत्यन्त चमत्कारपूर्ण, प्रभावक और अद्भुत है। इसका सबसे अद्भुत चमत्कार यह है कि यह अन्तरिक्षमें अधर विराजमान है। कहते हैं, प्राचीन काल में यह अन्तरिक्षमें एक पुरुषसे भी अधिक ऊंचाईपर अधर विराजमान थी। श्री जिनप्रभसूरि श्री अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ कल्पमें इस मूर्तिकी ऊंचाई इतनी मानते हैं, जिसके नीचेसे सिरपर घड़ा लिये हुए स्त्री आसानीसे निकल जाये। उपदेश सप्ततिमें सोमधर्म गणी बताते हैं कि पहले यह प्रतिमा इतनी ऊंची थी कि घटपर घट धरे स्त्री इसके नीचेसे निकल सकती थी। श्री अन्तरिक्ष पाश्वनाथ छन्दमें श्री लावण्य समय नीचेसे एक घुड़सवार निकल सके इतनी ऊँचाई बताते हैं।
इस प्रकारको कल्पनाओंका क्या आधार रहा है, यह किसी आचार्यने उल्लेख नहीं किया और दुर्भाग्यसे ऐसे सन्दर्भ प्राप्त नहीं हैं जो उनकी धारणा या कल्पनाका समर्थन कर सकें। श्रद्धाके अतिरेकमें जनतामें नाना प्रकारकी कल्पनाएँ बनने लगती हैं। आचार्योंने जैसा सुना, वैसा लिख दिया। उनके काल में मूर्ति भूमिसे एक अंगुल ऊपर थी, आज भी वह अन्तरिक्षमें अधर स्थित है।
कहनेका सारांश यह है कि जिसकी ख्याति हो जाती है, उसके सम्बन्धमें कुछ अतिशयोक्ति होना अस्वाभाविक नहीं है, किन्तु उसके बारेमें भ्रान्ति या विपर्यास होना खेदजनक है। इस क्षेत्रको अवस्थितिके बारेमें भी कुछ भ्रान्तियां हो गयी हैं । जैसे, श्रीपुर पाश्वनाथ क्षेत्र कहां है, इस सम्बन्धमें कई प्रकारको मान्यताएँ प्रचलित हैं। सुप्रसिद्ध जैन इतिहासवेत्ता पं. नाथूराम प्रेमी धारवाड़ जिले में स्थित शिरूर गांवको श्रीपर मानते हैं। इस स्थानपर शक संवत् ७८७ का एक शिलालेख भी उपलब्ध हुआ था। बर्गेस आदि पुरातत्त्ववेत्ता बेसिंग जिलेके सिरपुर स्थानको प्रसिद्ध जैन तीर्थ मानते हैं तथा वहां प्राचीन पार्श्वनाथ मन्दिर भी मानते हैं।
किन्तु हमारी विनम्र सम्मतिमें ये दोनों ही मान्यताएँ नाम-साम्यके कारण प्रचलित हुई हैं। श्वेताम्बर मुनि शीलविजयजी (विक्रम सं. १७४८ ) ने 'तीर्थमाला' नामक ग्रन्थमें अपनी तीर्थ यात्राका विवरण दिया है। उस विवरणको यदि ध्यानपूर्वक देखा जाये, तो श्रीपुरके सम्बन्धमें कोई भ्रान्ति नहीं रह सकती। उन्होंने अपनी दक्षिण यात्राका प्रारम्भ नर्मदा नदीसे किया था। सबसे प्रथम वे मानधाता गये। उसके बाद बुरहानपुर होते हुए देवलघाट चढ़कर बरारमें प्रवेश करते हैं। वहां "सिरपुर नगर अन्तरीक पास, अमीझरो वासिम सुविलास" कहकर अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ और वाशिमका वर्णन करते हैं। उसके बाद लूणारगांव, ऐलिचपुर और कारंजाकी यात्रा करते हैं।
___इस यात्रा-विवरणसे इसमें सन्देहका रंचमात्र भी स्थान नहीं रहता कि वर्तमान सिरपुर पार्श्वनाथ ही श्रीपुर पार्श्वनाथ है । वाशिम, लूणारगांव, ऐलिचपुर और कारंजा इसीके निकट हैं। मुनि शीलविजयजीने सिरपुर पार्श्वनाथको अन्तरिक्षमें विराजमान पार्श्वनाथ लिखा है।