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महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ
२९१ वह कुछ ही दूर गया होगा कि उसके मनमें सन्देह हुआ-गाड़ी हलकी क्यों है ? उसने पीछेकी ओर मुड़कर देखा, प्रतिमा सुरक्षित थी। वह गाड़ी लेकर फिर चला, किन्तु प्रतिमा नहीं चली, वह बहुत भारी हो गयी। तब राजाने लाचार होकर मूर्ति वहांके (श्रीपुर ) मन्दिरके तोरणमें विराजमान करा दी। पश्चात् मन्दिरका निर्माण कराया। इस कार्यमें भट्टारक रामसेनका पूरा सहयोग रहा। किसी कारणवश वहाँकी जनता रामसेनसे इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा नहीं कराना चाहती थी। अतः रामसेनने अधूरे मन्दिरमें ही प्रतिमा विराजमान करनेका विचार किया किन्तु प्रतिमा वहाँसे हटी नहीं। तब रामसेन वहाँसे चले गये।
पश्चात् राजाने पद्मप्रभ मलधारी भट्टारकको बुलाया। उन्होंने अपनी भक्तिसे धरणेन्द्रको प्रसन्न किया और धरणेन्द्रके आदेशानुसार प्रतिमाके चारों ओरसे दीवारें बनवाकर मन्दिरका निर्माण कराया।
इस प्रकार विद्याधर नरेश खरदूषणने जिस प्रतिमाकी स्थापना की थी, वह मूर्ति पहले कुएंमें निवास करती थी। ऐल श्रीपालने उसे कुएं से निकाला और उसका देवालय बनवाया।
ये किंवदन्ती हैं। इससे मनको पूरा समाधान नहीं हो पाता, बल्कि मनमें कुछ शंकाएं भी
ड़ी होती हैं । जैसे (१) खरदूषण मुनिसुव्रतनाथ तीर्थकरके कालमें हआ है जो कि तीर्थंकर परम्परामें बीसवें तीर्थंकर हैं । खरदूषणने उनकी प्रतिमा न बनाकर तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथकी प्रतिमा क्यों बनायी ? भविष्य में होनेवाले पार्श्वनाथ तीर्थंकरकी फणावलीयुक्त प्रतिमाकी कल्पना उसने क्योंकर कर ली ? (२) खरदूषणने जिस प्रतिमाको कुएंमें विराजमान कर दिया था, उस प्रतिमाको ख्याति किस प्रकार हो गयी ? निर्वाण-काण्ड आदिसे ज्ञात होता है कि राजा ऐल श्रीपालसे पूर्व भी श्रीपुरके पाश्वनाथकी ख्याति थी और यह अतिशय-क्षेत्रके रूपमें प्रसिद्ध था।
इन प्रश्नोंका समाधान पाये बिना क्षेत्रका प्रामाणिक इतिहास खोजा नहीं जा सकेगा। क्षेत्र अत्यन्त प्राचीन है, इसमें सन्देह नहीं है। यदि हम प्राकृत निर्वाण-काण्डमें आये हुए 'पासं सिरपुरि वंदमि' समेत अतिशय क्षेत्रों सम्बन्धी समस्त गाथाओंको बादमें की गयी मिलावट भी मान लें, जैसी कि कुछ विद्वानोंकी धारणा है, तब भी क्षेत्रको प्राचीन सिद्ध करनेवाले अन्य भी प्रमाण उपलब्ध हैं।
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, चालुक्य नरेश जयसिंहके वि. संवत् ५४५ (ई० सन् ४८८) के ताम्रशासनादेश द्वारा इस क्षेत्रको कुछ भूमि दान दी गयी थी। अर्थात् ईसा की पांचवीं शताब्दीमें भी यह क्षेत्र प्रसिद्ध था।
आठवीं शताब्दीके आचार्य जिनसेनने 'हरिवंशपुराण में श्रीपुर आदि नगरोंको दिव्य नगर माना है। बृहत् जैन शब्दार्णव, पृ. ३१७ के अनुसार 'इस मूर्तिकी प्रतिष्ठा वि. संवत् ५५५ में हुई थी।
सिरपुरके सन्दर्भ Sirpur Inscription
(In Situ ) Shirpur is 37 miles from Akola. In the temple of Antariksha Parswanath, belonging to the Digamber Jain Community, there is an abroded inscription in Sanskrit, which seems to be dated in Sambat 1334. But Mr. Consens believes that the temple was built at least a hundred years earlier. The name