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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ चित्रं नात्र करोति कस्य मनसो दृष्टः पुरे श्रीपुरे,
स श्रीपाश्र्वजिनेश्वरो विजयते दिग्वाससां शासनम् ॥" ___ अर्थात् जिस ऊंचे आकाशमें एक पत्ता भी क्षण-भरके लिए ठहरनेमें समर्थ नहीं है, उस आकाशमें भगवान् जिनेश्वरका गुणरत्न पर्वतरूप भारी जिनबिम्ब स्थिर है। श्रीपुर नगरमें दर्शन करनेपर वे पार्वजिनेश्वर किसके मनको चकित नहीं करते?
___इस प्रकार अनेक आचार्यों, भट्टारकों और कवियोंने श्रीपुरके अन्तरिक्ष पार्श्वनाथकी स्तुति की है और आकाशमें अधर स्थिर रहनेकी चर्चा की है। कुछ शिलालेख और ताम्रशासन भी उपलब्ध हुए हैं, जिनमें इस क्षेत्रको भूमि-दान करनेका उल्लेख मिलता है। चालुक्यनरेश जयसिंहके ताम्रपत्रानुसार ई. सन् ४८८ में इस क्षेत्रको कुछ भूमि दान दी गयी थी। एक अन्य लेखके अनुसार मुनि श्री विमलचन्द्राचार्यके उपदेशसे ( ई. सन् ७७६ ) पृथ्वी निर्गुन्दराजकी पत्नी कुन्दाच्चीने श्रीपुरके उत्तरमें 'लोक तिलक' नामक मन्दिर बनवाया था। इन्हीं विमलचन्द्राचार्य की प्रतिष्ठित कई छोटी-बड़ी मूर्तियां श्रीपुरमें उपलब्ध होती हैं।
अकोला जिलेके सन् १९११ के गजेटियरमें यहाँके सम्बन्धमें लिखा है कि आज जहाँ मूर्ति विराजमान है, उसी भोयरेमें वह मूर्ति संवत् ५५५ ( ई. सन् ४९८ ) में वैशाख सुदी ११ को स्थापित की गयी थी।
इसके विपरीत कुछ लोगों की मान्यता है कि ऐल नरेश श्रीपालने यह पाश्वनाथ मन्दिर बनवाया था। ऐल श्रीपालके सम्बन्धमें एक रोचक किंवदन्ती भी प्रचलित है जो इस प्रकार है
ऐलिचपुरके नरेश ऐल श्रीपाल जिनधर्मपरायण राजा थे। अशुभोदयसे उन्हें कुष्ठ रोग हो गया। उन्होंने अनेक उपचार कराये, किन्तु रोग शान्त होनेके बजाय बढ़ता ही गया। एक बार वे अपनी रानीके साथ कहीं जा रहे थे। मार्ग में विश्रामके लिए वे एक वृक्षके नीचे बैठ गये । निकट ही एक कुआं था। वे उस कुएँपर गये। उन्होंने उसके जलसे स्नान किया और उस जलको तप्त होकर पिया। फिर वे रानीके साथ आगे चल दिये। दूसरे दिन रानीकी दृष्टिमें यह बात आयी कि रोगमें पर्याप्त अन्तर है। रानीने राजासे पूछा-"आपने कल भोजनमें क्या-क्या लिया था ?" राजाने उन व्यंजनोंके नाम गिना दिये जो कल लिये थे। रानी कुछ देर सोचती रही, फिर उसने पूछा-"आपने स्नान कहाँ किया था ?" राजाने उस कुएँके बारेमें बताया जहाँ कल स्नान किया था। रानी बोली-"महाराज ! हमें लौटकर वहीं चलना है जहाँ आपने कल स्नान किया था। आपके रोगमें सुधार देख रही हूँ। मुझे उस कुएँके जलका ही यह चमत्कार प्रतीत होता है।"
राजा और रानी लौटकर कुएँ तक आये। उन्होंने वहीं अपना डेरा डाल लिया। कई दिन तक रहकर राजाने उस कुएंके जलसे स्नान किया। इससे रोग बिलकुल जाता रहा। राजा बड़ा प्रसन्न हुआ, किन्तु वह उस कूपके सम्बन्धमें विचार करने लगा-क्या कारण है जो इस कूप-जलमें इतना चमत्कार है। रात्रिमें जब वह सो रहा था तब उसे स्वप्न दिखाई दिया और स्वप्नमें पाश्वनाथकी मूर्ति दिखाई दी। स्वप्नसे जागृत होनेपर उसने बड़े यत्नपूर्वक वह मूर्ति कुएंसे निकाली। प्रतिमाके दर्शन करते ही राजाको अत्यन्त हर्ष हुआ। उसने बड़ी भक्तिके साथ भगवान्की पूजा की। फिर स्वप्न में देव पुरुष द्वारा बतायी विधिके अनुसार घास की गाड़ीमें उस प्रतिमाको रखकर चल दिया। उसकी इच्छा प्रतिमाको अपनी राजधानी ऐलिचपुर ले जानेकी थी।
१. जैन शिलालेख संग्रह भाग २, पृष्ठ ८५ । २. वही, पृष्ठ १०९।