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महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थं
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वर्तमान मन्दिर राजा श्रीपालने निर्मित कराया होगा । किन्तु क्षेत्रके रूपमें अन्तरिक्ष में विराजमान उस मूर्ति विशेषकी ओर क्षेत्रकी ख्याति तो इससे भी पूर्वकालसे थी। जैन साहित्य, ताम्रशासन और शिलालेखों में इसके सम्बन्ध में अनेक उल्लेख मिलते हैं । जैन कथा साहित्यके आधारपर तो यहां तक कहा जा सकता है कि यह चमत्कारी प्रतिमा रामचन्द्रके कालमें भी विद्यमान थी । विद्याधर नरेश खरदूषणने इसकी स्थापना की थी। कथा इस प्रकार है
लंकानरेश रावणकी बहन चन्द्रनखाका विवाह खरदूषण विद्याधर नरेशके साथ हुआ था । खरदूषण जिन-दर्शन किये बिना भोजन नहीं करता था। एक बार वन-विहार करते हुए उसे प्यास लगी । किन्तु वहाँ आसपासमें कोई जिनालय दिखाई नहीं पड़ रहा था । प्यास अधिक बढ़ने लगी । तब उसने बालुकाकी एक मूर्ति बनाकर उसका पूजन किया । पश्चात् उस मूर्तिको एक कुएँ में सुरक्षित रख दिया ।
१६वीं सदी के लक्ष्मण नामक एक कविने 'श्रीपुर पाश्वनाथ विनती' में इस घटनाका इस प्रकार पद्यमय चित्रण किया है
"लंकानयरी रावण करे राज्य । चन्द्रनखा भगिनी भरतार ॥१॥ खरदूषण विद्याधर धीर । जिनमुख अवलोकनव्रत धरे धीर ॥२॥ वसंत मास आयो तिह काल । क्रीड़ा करन चाल्यो भूपाल ॥३॥ लागी तृषा प्रतिमा नहि संग । बालुतनु निर्मायो बिब ॥ ४ ॥
पूजि प्रतिमा जल लियो विश्राम । राख्यो बिब कूपनि ठाम ||५||
आचार्य लावण्यविजयजी आदि कई श्वेताम्बर आचार्योंने भी पार्श्वनाथके बिम्बकी स्थापना खरदूषण द्वारा की गयी माना है । दूसरे आचार्योंके मतानुसार इस बिम्बकी स्थापना माली - सुमाली द्वारा हुई मानी जाती है ।
पुराणों में कई स्थानोंपर श्रीपुरका नामोल्लेख मिलता है । चारुदत्त धनोपार्जनके लिए भ्रमण करता हुआ यहाँ आया था । इसका उल्लेख चारुदत्त चरित्रमें आया है । कोटिभट श्रीपाल वत्सनगर (वाशिम, जिला अकोला ) आया था, तब इस नगरके बाहर विद्या साधन करते हुए एक विद्याधरकी सहायता उसने की थी ।
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सिरपुर (श्रीपुर ) के पार्श्वनाथकी ख्याति पौराणिक युगके पश्चात् ईसाकी प्रारम्भिक शताब्दियों में भी रही है । प्राकृत निर्वाण काण्डमें इस मूर्तिकी वन्दना करते हुए कहा गया है। 'पासं सिरपुरि वंदमि' अर्थात् 'मैं श्रीपुरके पार्श्वनाथकी वन्दना करता हूँ ।' भट्टारक उदयकीर्ति कृत अपभ्रंश निर्वाण-भक्ति में इसीका अनुकरण करते हुए कहा है- 'अरु वंदउँ सिरपुरि पासणाहु | जो अंतरिक्ख थिउ णाणलाहु ।' प्राकृत निर्वाण-भक्तिकी अपेक्षा अपभ्रंश निर्वाण-भक्ति में एक विशेषता है । इसमें श्रीपुरके जिन पार्श्वनाथको वन्दना की गयी है, उनके सम्बन्ध में यह भी सूचित किया गया है कि वे पार्श्वनाथ अन्तरिक्षमें स्थित हैं ।
अतिरिक्त गुणकीर्ति, मेघराज, सुमतिसागर, ज्ञानसागर, जयसागर, चिमणा पण्डित, सोमसेन, हर्ष आदि कवियोंने तीर्थं वन्दना के प्रसंग में विभिन्न भाषाओंमें अन्तरिक्ष पार्श्वनाथका उल्लेख किया है । यतिवर मदनकीर्तिने 'शासन चतुस्त्रिशिका' में इस प्रतिमाके चमत्कार के सम्बन्धमें इस प्रकार बताया है
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"पत्र यत्र विहायसि प्रविपुले स्थातुं क्षणं न क्षमं, तत्रास्ते गुणरत्न रोहण गिरिर्यो देवदेवो महान् ।