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________________ महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ २८७ इस वेदीपर मूलनायकके अतिरिक्त १ पाषाण प्रतिमा पाश्वनाथकी तथा ९ धातुकी प्रतिमाएँ हैं। गर्भगृहके चारों ओर सभामण्डप बना हुआ है। इस वेदीको बायीं ओर एक अन्य मण्डप बना हुआ है। यह उत्तराभिमुखी है। मुख्य वेदीपर मूलनायक भगवान् शान्तिनाथकी श्वेत पाषाणको १ फुट २ इंच ऊँची पद्मासन मूर्ति है। इसकी प्रतिष्ठा शक संवत् १५३५ में हुई है । इस वेदोपर पाषाणकी १० और धातुकी ३२ मूर्तियाँ विराजमान हैं। पहले इस मन्दिरको शान्तिनाथ मन्दिर कहा जाता था। शान्तिनाथकी इस मूर्तिकी बड़ी मान्यता, ख्याति थी। मराठी भाषामें रची गयी पूजन और आरती संग्रहोंमें इसकी बड़ी प्रशंसा की गयी है । ब्रह्म जिनसागर, ब्रह्म नेमिसागर आदिने इसकी प्रशंसामें अनेक पद्योंकी रचना की है। किन्तु जबसे मल्लिनाथकी मूर्ति यहाँ आयो है और उसके अतिशयोंकी चर्चा चारों ओर फैली है, तबसे मल्लिनाथकी मूर्तिकी मान्यता बहुत बढ़ गयी है। बायीं ओरकी वेदीमें पाषाणको ७ धातुको प्रतिमाएँ और हैं। मुख्य वेदीके पृष्ठ भागवाली वेदोमें २१ पाषाणको तथा ४ धातकी प्रतिमाएं हैं। इनमें काले पाषाणकी प्रतिमा (शिरडसे ८ कि. मी. पूर्वकी ओर एक गांव ) से लायी गयी हैं। वहाँका मन्दिर ध्वस्त हो चुका है। यहां पीतलका एक पंचमेरु. भी है जो वार्शीटाकली (जिला अकोला ) से लाया गया है। इस मण्डपमें एक भित्ति-वेदीमें ३ धातुकी तथा ३ पाषाणकी देवी-मूर्तियाँ हैं । पीतलकी एक श्रुतस्कन्ध प्रतिमा भी है। ऊपर छतपर भी एक वेदी है। उसमें भगवान् महावीरकी श्वेत प्रतिमा है। मन्दिरके सामने मानस्तम्भ है। भट्टारक-समाधि शिरड शहापुरसे बलात्कारगणको कारंजा शाखाके भट्टारकोंका सम्बन्ध रहा है । भट्टारक देवेन्द्रकीति अपने अन्तिम समयमें शिरड शहापुरमें शान्तिनाथ मन्दिरमें आकर कुछ समय तक रहे थे। जब उन्हें अपनी मृत्युका आभास हो गया तो उन्होंने दिगम्बर मुनि-दीक्षा ले ली और यहाँके जंगलमें घोर तपश्चरण करने लगे । अन्तमें उन्होंने समाधिमरण करके देवगति प्राप्त की। उन्होंने कार्तिक वदो १० संवत् १८५० को देह त्याग की। नदीके दूसरे तटपर उनकी समाधि बनी हुई है। भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति बलात्कारगणको कारंजा शाखाके भट्टारक थे। उनके गुरु भट्टारक धर्मचन्द्र थे । इनका भट्टारक-काल संवत् १८४० से १८५० तक है। इनके एक शिष्य जिनसागर थे। इन्होंने शिरड गांवमें रहकर लवणांकुश कथा, अनन्त कथा और सुगन्धदशमी कथाकी रचना की थी। बलात्कारगण मन्दिर कारंजामें भट्टारक देवेन्द्रकोतिको चरण-पादुका है। उनके ऊपर निम्नलिखित लेख उत्कीणं है । 'संवत् १८५० शके १७१५ कार्तिक मासे कृष्ण पक्षे १० बुद्ध मध्याह्न उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रे प्रीतियोगे अस्यां शुभवेलायां श्री मूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये मलखेडसिंहासनाधीश्वरकार्यरंजकपुरवासी भ. श्रीधर्मचन्द्रस्तत्पट्टे भ. श्रीमद्देवेन्द्रकोर्तिनां देवलोक प्राप्तिर्जाता तत्पादुकेयं प्रतिष्ठापिता ॥'
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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