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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ अतिशय क्षेत्र
___ इस क्षेत्रके सम्बन्धमें एक रोचक किंवदन्ती प्रचलित है। यहाँ भगवान् मल्लिनाथको सातिशय प्रतिमा विराजमान है। पहले यह प्रतिमा नौदेड़ जिलेमें अर्धापुरमें विराजमान थी। उस समय कारंजा पट्टके पट्टाधिकारी बलात्कारगणके भट्टारक पद्मनन्दी विहार करते हुए भीकर ग्राम जा रहे थे। मागंमें अर्धापुर ग्राममें निवास हुआ। वहां उन्होंने अनेक खण्डित-अखण्डित जैन मूर्तियां देखीं। उनमें मल्लिनाथ भगवान्की प्रतिमा थी। उस मूर्तिको इस प्रकार पड़ा हुआ देखकर उन्हें दुःख हुआ। उन्होंने उस मूर्तिको कारंजा ले जानेका विचार किया। इसके लिए उन्होंने गाँवके पटेल तथा पटवारीसे अनुमति मांगी किन्तु उन्होंने मूर्ति ले जाने देनेकी अनुमति नहीं दी। भट्टारकजी म्यानामें बैठकर सीधे हैदराबाद गये और वहाँके शासक निजामके दरबारमें पधारे। दरबारमें पहँचकर उन्होंने वाहकोंसे म्याना छोड़ देनेको कहा। वाहकोंने आज्ञानुसार म्याना कन्धेसे उतारकर छोड़ दिया किन्तु वह फिर भी जमीनसे अधर रहा। निजाम इस चमत्कार को देखकर बड़े प्रभावित हुए और बड़ी विनम्रतासे भट्टारकजीसे बोले-"स्वामीजी ! मैं कारंजाको जागीर आपके कदमोंमें चढ़ाता हूँ। मेहरबानी करके उसे कबूल फरमायें।" भट्टारकजी बोले-"हम तो दिगम्बर गुरु हैं। हमें धन-सम्पत्तिकी आवश्यकता नहीं है। यदि आप हमारे ऊपर प्रसन्न हैं तो हमें अर्धापुरसे जैन मूर्तियोंको कारंजा ले जाने की इजाजत दे दें।" निजामने तत्काल भट्टारकजोको इच्छानुसार आदेश-पत्र लिख दिया।
भट्टारकजी अर्धापुर गये और प्रतिमाको लेकर कारंजाकी ओर चल दिये। मार्गमें शिरड शहापुरमें उनका मुकाम हुआ। उसी रात्रिको भट्टारकजी को स्वप्न हुआ कि भगवान् मल्लिनाथकी
काल होनेपर भट्टारकजीने वह प्रतिमा वहाँ जैन मन्दिरमें विराजमान कर दी और उसकी समारोहपूर्वक प्रतिष्ठा की। बादमें इस प्रतिमाके कारण ही यह स्थान अतिशय क्षेत्र कहलाने लगा।
इस क्षेत्रसे सम्बन्धित एक चमत्कारिक घटना सुनने में आती है जिससे जनताको श्रद्धा इस मूर्तिके प्रति बढ़ती गयो।
घटना इस प्रकार है कि सन् १९६४ में पंच कल्याणक प्रतिष्ठा थी। लगभग ५ हजार यात्री इस अवसरपर आये थे। उस समय कुओंमें जलकी कमी थी, जिससे यात्रियोंके लिए जलको असुविधा होने लगी। भक्त लोग भगवान् मल्लिनाथके चरणोंमें बैठकर स्तुति करने लगे। सबने आश्चर्यके साथ देखा कि कुओंमें तेजीसे जल बढ़ने लगा और लगभग डेढ़-दो फूट जल बढ़ गया। इससे जलको समस्या सुलझ गयी। क्षेत्र-दर्शन
क्षेत्रके प्रमुख प्रवेश-द्वारसे प्रवेश करनेपर दो सहन मिलते हैं। इन सहनोंमें कार्यालय और धर्मशाला है । भीतरके सहनमें जिनालय बना हुआ है। जिनालय में प्रवेश करते ही सामने गर्भगृह है। यह पूर्वाभिमुख है। इसमें वेदोपर मल्लिनाथ भगवान्को अर्धपद्मासन श्याम वर्ण ४ फीट ऊँची प्रतिमा विराजमान है। मूर्तिके कर्ण स्कन्धचुम्बी हैं। प्रतिमाके स्कन्धपर जटाएँ बिखरी हुई हैं । वक्षपर सुन्दर श्रीवत्स है। मूर्ति अत्यन्त मनोज्ञ है। मूर्तिको चरण-चौकीपर कोई लांछन नहीं है, किन्तु मूर्ति-लेखमें मल्लिनाथका नामोल्लेख है, अतः इसे मल्लिनाथकी मूर्ति माना जाता है। मूर्ति-लेखके अनुसार संवत् १६३१ माह वदी ३ को मूलसंघ बलात्कारगणके भट्टारक सुरेन्द्रकीतिने अर्धापुरमें मल्लिनाथ प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करायी।