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________________ महाराष्ट्र के दिगम्बर जैन तीर्थ २८३ से इस पाषाण-खण्डको तोड़नेका प्रयत्न किया गया था। वह पाषाण-खण्ड तो नहीं टूटा, किन्तु प्रतिमाका बैलेन्स कुछ बिगड़ गया । फलतः प्रतिमा बायीं ओरसे भूमिपर कुछ टिक गयी है। इस प्रकोष्ठसे ऊपर चढ़कर चैत्यस्तम्भके पाश्ववर्ती प्रकोष्ठमें एक खड्गासन मूर्ति बाहुबली स्वामीकी है जिसकी अवगाहना ४ फीट ७ इंच है। इसमें गहन माधवी लताओंका अंकन है। दायें स्कन्धपर एक सर्प फण निकाले हुए है। बायें कन्धेका सपंफण खण्डित है। इस कक्षमें बायीं ओर शलाफलकमें मध्यमें एक खड्गासन प्रतिमा बनी हुई है। ऊपर दोनों किनारोंपर दो पद्मासन और अधोभागमें खड्गासन मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । मध्यवर्ती मूतिके कन्धोंपर जटाएँ हैं। इस मन्दिरके सामनेकी पहाड़ी पर चन्द्रगुफा है। दोनों पहाड़ियोंके मध्य में धवधवी नामक नदी बहती है । नेमिनाथ मन्दिरसे नीचे घाटीमें उतरनेपर एक चबूतरेपर चरण-पादुका बनी है। सम्भवतः यह किसी चारण मुनिकी स्मृतिमें बनायी गयी है जो इस पहाड़ीपर कभी आये थे। सामनेकी पहाड़ीपर राजुलमतीका प्राचीन मन्दिर है। यहाँ एक वेदी है। इसके चारों ओर तीन कटनीवाली दीवार है। मुस्लिम आक्रामकोंको विध्वंस-लीलासे बची हुई यहांकी मूर्तियाँ गाँवके मन्दिरमें पहुंचा दी गयी हैं। प्रतिष्ठाकारक और प्रतिष्ठाचार्य इन मूर्तियोंकी चरण-चौकीपर लेख उत्कीर्ण हैं। इन लेखोंके अध्ययनसे ज्ञात होता है कि इस मन्दिर और उसके तल-प्रकोष्ठोंका निर्माण नांदगांव निवासी बघेरवाल जातीय सरा गे जस्सू संघवी और उनकी धर्मपत्नी कोण्डाईके पुत्र वीर संघवीने कराया था। वीर संघवीकी पत्नीका नाम घालावी था। उसके पुत्रोंके नाम नेमा, सातू या शान्ति, अन्तू या अनन्तसा थे। मूर्ति-लेखोंमें उनकी स्त्रियोंके ये छह नाम मिलते हैं-गंगाई, सरस्वती, जयवाई, नेमाई, रतनाई और आदाई। इन मूर्तियोंके प्रतिष्ठाचार्य थे भट्टारक कुमुदचन्द्राचार्य, जो मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण कुन्दकुन्दाचार्यान्वयके भट्टारक थे। भट्टारक कुमुदचन्द्र, भट्टारक धर्मचन्द्र, उनके शिष्य भट्टारक धर्मभूषण उनके शिष्य भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिके शिष्य थे। ये सभी भट्टारक कारंजा पीठके अधीश्वर थे। इनका भट्टारक-काल संवत् १६५६ से १६७० तक 'निश्चित किया गया है। इन्होंने इस क्षेत्रकी मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा शक संवत् १५३२ श्रावण सुदी १३ और फाल्गुन वदी १० को करायी थी। किन्तु एक खण्डित पार्श्वनाथ-मूर्तिकी चरण-चौकीके लेखसे कुछ नवीन तथ्योंपर प्रकाश पड़ता है, जिनसे (१) इन भट्टारकोंके काल-निर्णयपर प्रभाव पड़ता है। (२) वीर संघवीके पांच पुत्र थे, इस मान्यताका खण्डन होता है। तथा (३) यह धारणा कि वीर संघवीके तीन पुत्रोंने अपने नामके अनुरूप तीर्थंकरोंकी एक-एक प्रतिमाकी प्रतिष्ठा करायी, इस धारणाका भी खण्डन होता है । बल्कि मूर्ति-लेखोंके देखनेसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वीर संघवी और उनके पुत्रोंने इन प्रतिमाओंकी प्रतिष्ठा करायी थी। पाश्वनाथकी मूर्तिका लेख इस प्रकार है "शक १५३० फाल्गुन शुद्ध ५ मूलसंघे बलात्कारगणे कुन्दकुन्दाचार्य-परम्परागत भट्टारक धर्मचन्द्र तत्पट्टे भट्टारक श्री धर्मभूषण तत्पट्टे भट्टारक श्री देवेन्द्रकीर्ति तत्पट्टे भट्टारक श्री कुमुदचन्द्राचार्य भट्टारक धर्मचन्द्र उपदेशात् बघेरवालज्ञातीय सुरागोत्रे संघवी श्री जसाशाह भार्या १. भट्टारक सम्प्रदाय, लेखक प्रो. वी. पी. जोहरापुरकर एम. ए., पृ. ७७ ।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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