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________________ २८२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ हैं। ३-४ मन्दिरोंके भग्नावशेष मिलते हैं। ७ जैन मन्दिरोंकी मूलनायक प्रतिमाएं साहूके जैन मन्दिरमें रखी हुई हैं। __ जिस पहाड़पर जिनालय है, उसके सामनेकी पहाड़ीपर एक गुफा बनी हुई है, जिसे चन्द्रगुफा कहते हैं । यहाँ मुसलमान आक्रान्ताओंने बहुत सी मूर्तियाँ तोड़ दी थीं। कहते हैं, जैनोंने खण्डित मूर्तियां जमीनमें दबा दी और अखण्डित मूर्तियां गांवके मन्दिरमें पहुंचा दी। यह गुफा पर्याप्त प्राचीन है। इस गुफाका उल्लेख संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें भी आया है। इस उल्लेखसे ही उसकी प्राचीनता असन्दिग्ध हो जाती है । सन्दर्भ श्लोक इस प्रकार है "श्रीमच्चन्द्रगुहावराक्षरशिलां वस्त्रावतारं सदा। अर्चे चारणपादुकाचणगुहे सर्वामरैरचिंताम् । भास्वल्लक्षणपक्तिनिर्वृतिपथं विन्दुं च धर्म शिलाम् । सम्यग्ज्ञानशिलाञ्च नेमिनिलयं वन्दे च शृङ्गत्रयम् ॥२८॥" इसमें ज्ञानशिला और नेमिनाथ मन्दिरके नेमिनाथकी वन्दना की गयी है । सम्भवतः प्राचीनकाल में चन्द्रगुफामें कोई शिला थी जिसे ज्ञानशिला कहते थे। आज ज्ञानशिलाको तो लोग भूल गये हैं, किन्तु चन्द्रगुहा और चारण मुनियोंकी पादुका ( चरण-चिह्न ) अब भी विद्यमान हैं। क्षेत्र-दर्शन क्षेत्र तक कच्ची सड़क है । एक अहातेके अन्दर गुहा-मन्दिर हैं । ये गुफाएं एक ही मन्दिरके भीतर हैं। इस मन्दिरमें कुल ६ गुफाएँ या तल-प्रकोष्ठ बने हुए हैं। इन प्रकोष्ठोंमें जानेके लिए मार्ग है। मन्दिरमें प्रवेश करते ही दायीं ओर एक प्रकोष्ठमें ४ फीट ८ इंच ऊंचा पाषाण-चैत्य है जिसमें चारों दिशाओंमें २७ मूर्तियां बनी हुई हैं । पाषाण श्यामवर्णं है। . यहाँसे सीढ़ियों द्वारा उतरकर एक कक्षमें जाते हैं। इसमें भगवान् आदिनाथकी २ फीट अवगाहनाकी श्याम वर्ण पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। मूर्ति के स्कन्ध तक जटाएँ हैं। चरणचौकीपर कोई लांछन नहीं है किन्तु जटाओंके कारण इसे आदिनाथकी प्रतिमा माना जाता है। इस कक्षसे ४ सीढ़ियाँ उतरकर ११ फोट ९ इंच चौड़ा और १६ फीट ६ इंच लम्बा एक कक्ष मिलता है। इसमें भगवान् शान्तिनाथकी ५ फोट ४ इंच ऊँची और ४ फीट ४ इंच चौड़ी एक पद्मासन प्रतिमा आसीन है । वक्षपर श्रीवत्स नहीं है । कणं स्कन्धस्पर्शी हैं। इस कक्षसे थोड़ा उतरनेपर एक कक्षमें भगवान् नेमिनाथको ७ फीट २ इंच ऊँची और ५ फीट ८ इंच चौड़ी श्यामवर्ण पद्मासन प्रतिमा है। इसके वक्षपर श्रीवत्स है। कणं स्कन्धचुम्बी हैं। जटाएँ स्कन्ध तक हैं। इसके अधोभागमें दोनों पावों में ३-३ भक्त-स्त्रियों और मध्यमें ३ भक्तपुरुषोंकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इसके पार्श्ववर्ती एक अन्य प्रकोष्ठ में भगवान् पाश्वनाथको नौ फणावलिमण्डित ५ फीट १० इंच उत्तुंग और ४ फोट ५ इंच चौड़ी पद्मासन प्रतिमा है। वक्षपर श्रीवत्स है। पृष्ठ भागपर सपंवलय बना हुआ है। यह वलय एक अन्य वलयमें लिपटा हुआ है । वक्षपर श्रीवत्स अंकित है। इसके फण पर्याप्त भारयुक्त हैं। इतनी विशाल और भारी मूर्ति लगभग ३ इंच वर्गाकार पाषाणके एक टुकड़ेपर आधारित है । अतः लोग इसे अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ कहते हैं। इस मूर्तिके नीचे इतना स्थान है जिसमें मोटा कोवरा सपं आसानीसे बैठ सकता है। एकाधिक बार यहाँ काला फनियल सर्प भी मूतिके नीचे बैठा हुआ देखा गया है । लगभग २० वर्ष पहले मूर्ति के गिर जानेकी आशंका
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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