SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाराष्ट्र के दिगम्बर जैन तीर्थ सोचा-विषवृक्षको बढ़नेसे पूर्व ही नष्ट कर देना बुद्धिमत्ता होगी। और फिर सेनापतिको बुलाकर आदेश दिया -"तुरन्त सेना लेकर प्रतिष्ठानपुरको घेर लो और बालक सातवाहनको नष्ट कर दो।" आदेश पाते ही सेनापति चतुरंगिणी सेना लेकर प्रतिष्ठानपुर जा पहुंचा। महाराज विक्रमादित्य अपने राजगजपर आरूढ़ थे। नगरवासी इतनी विशाल सेनाको देखकर भयभीत भी थे और आश्चर्यचकित भी। सभी विस्मयमें पड़े हुए थे-"हमारे नगरमें कोई राजा नहीं है, फिर अवन्ती नरेशने अपने सम्पूर्ण सैन्यबलको लेकर हमारे इस छोटे-से नगरके विरुद्ध यह अभियान क्यों किया है ?" तभी एक राजदूत बालक सातवाहनके निकट पहुँचकर बोला"बालक ! महाराज तुझपर कुपित हैं । वे कल प्रातःकाल तेरा वध करेंगे। तुझे युद्धके लिए तैयार हो जाना चाहिए।" राजदूतकी बात सुनकर बालकके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। वह पूर्ववत् निर्भय होकर अपने खेलमें लगा रहा। जब उसकी माताको यह विदित हुआ तो गहन चिन्तामें डूब गयी। उसके दोनों भाइयोंको भी अपनी बहनके गर्भके सम्बन्धमें वास्तविकताका पता चल गया था, अतः वे दोनों पुनः प्रतिष्ठानमें लौट आये थे। वे अपनी बहनसे बोले-."बहन ! जिसने तुझे पुत्र दिया था, उस देवसे अपनी चिन्ता कह । वही तेरी सहायता करेगा।" बहनको यह सुनकर नागराजके आश्वासन-वचन याद आ गये। वह तत्काल गोदावरी नदीके उस नागह ची। उसने नागराज शेषका ध्यान किया। तत्काल नागराज प्रगट हुए और बोले-"मुझे तुमने क्यों स्मरण किया।" ब्राह्मण-कन्याने सिरपर मंडराते हुए संकटकी बात बतायी। सुनते ही नागराज क्षुब्ध होकर बोले-“अवन्तिराजका इतना साहस कि वह मेरे पुत्रका ही वध करना चाहता है । तू निर्भय रह और यह अमृत घट ले। इसमें से कुछ अमृत पुत्रके मिट्टोके खिलौनोंपर छिड़क देना । वे सब सजीव हो उठेंगे। वे ही अवन्तीको सेनासे युद्ध करके उसे पराजित करेंगे । तेरा पुत्र प्रतिष्ठानका नरेश बनेगा। उसका राज्याभिषेक इस घटके अवशिष्ट अमृतसे ही करना। जब तू मुझे स्मरण करेगो, मैं तत्काल आऊँगा।" यों कहकर नागराजने अमृत घट उसे दिया और अन्तर्धान हो गये। ब्राह्मणीने घरपर जाकर मिट्टीके खिलौनोंके ऊपर अमृत छिड़का तो वे खिलौने सजीव साकार हो उठे। उन्होंने अवन्तिनरेशकी सेनासे युद्ध किया। परिणाम यह हुआ कि अवन्तीकी सेना और महाराज विक्रमादित्य पराजित हुए और अपने प्राणोंको लेकर भागे। प्रतिष्ठानमें सातवाहनका राज्याभिषेक किया गया। अभिषेकमें घटका अमृत ही प्रयुक्त किया गया। राज्यासीन होनेपर सातवाहनने प्रतिष्ठान में अनेक प्रासादों, हों, कोट, परिखा, राजपथों, पण्यागारों, हाटों आदिका निर्माण किया। उस समय प्रतिष्ठान व्यापारका एक प्रमुख केन्द्र बन गया। सुदूर देशोंसे बड़े-बड़े पोत और सार्थ वहाँ आते और वहाँसे जाते थे। हिरण्य, सुवर्ण, धन और धान्यसे यह नगर सम्पन्न था। दक्षिणापथमें इसके वैभवकी समता नहीं थी। सातवाहन एक प्रबल पराक्रमी वीर था। उसने थोड़े ही कालमें सम्पूर्ण दक्षिणापथको अपने आधीन कर लिया तथा ताप्ती तक उत्तरापथका भाग उसके अधिकारमें आ गया। उसने जैनधर्म धारण कर लिया और अनेक जिनालयोंका निर्माण कराया। उसकी सभामें कि ५० वीर रहते थे। उन्होंने भी अनेक जिनालयोंका निर्माण कराया। इस प्रकार सातवाहन नरेशके कारण प्रतिष्ठानको प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गयी। अनेक विद्वानोंका मत है कि इसी सातवाहनने शक संवत्का प्रचलन किया था।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy