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महाराष्ट्र दिगम्बर जैन तीर्थं
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मन्दिर के लिए मेन रोडपर स्थित घृष्मेश्वर मन्दिरके बगलसे एक कच्चा मार्ग जाता है। लगभग दो फर्लांग चलकर फिर पक्की सीढ़ियाँ मिलती हैं। सीढ़ियां चढ़कर पार्श्वनाथ मन्दिर पहुँच जाते हैं ।
मन्दिर आधुनिक है । यह प्राचीन मन्दिरके स्थानपर बनाया गया है । इसमें केवल मण्डप और गर्भगृह है | यहाँ भगवान् पार्श्वनाथकी मूर्ति १६ फीट उत्तुंग श्यामवर्ण अर्धपद्मासन है । इसके शिरोभागके ऊपर नोफणावली सुशोभित है। वक्षपर श्रीवत्स नहीं है । कर्ण स्कन्ध तक नहीं हैं । पीठासनपर सामने की ओर सिंह और गज उत्कीर्ण हैं । मध्य में सम्भवतः प्रतिष्ठाकारक दम्पती हाथ जोड़े बैठे हुए हैं । भगवान् के पीछे सवलय है । बायीं ओर एक दाढ़ीवाला भक्त हाथ जोड़े बैठा है | भगवान्का सेवक यक्ष धरणेन्द्र खड़ा है। दायीं ओर भगवान् की सेविका यक्षी पद्मावती खड़ी है । तथा दो भक्त हाथ जोड़े बैठे हुए हैं । भगवान्के चरणोंके निकट पार्श्वनाथकी एक लघु प्रतिमा विराजमान है ।
बाहर बरामदे में मंगलकलश लिये दो भक्त खड़े हैं ।
यह मन्दिर गुफाओंसे अलग एकान्तमें बना है । इस पर्वतको चारणाद्रि अथवा कनकाद्रि कहते हैं । इस सम्बन्ध में एक किंवदन्ती प्रचलित है कि यहां प्राचीनकालमें चारण ऋद्धिधारी मुनि आकर तपस्या करते थे । अतः इस पर्वतका नाम 'चारणाद्रि' पड़ गया । यहाँका एकान्त, शान्तिपूर्ण वातावरण तपस्या और ध्यानके लिए अत्यन्त अनुकूल है । पार्श्वनाथ भगवान् की यह मूर्ति अत्यन्त सौम्य, प्रशान्त और गम्भीर है । इसके दर्शन करनेसे मनमें शान्ति और वीतरागता - का उद्रेक होने लगता है ।
इस मूर्तिकी चरण-चौकीपर लेख अंकित है जिससे मूर्तिके निर्माता, निर्माणकाल आदि ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश पड़ता है । लेख इस प्रकार पढ़ा गया है—
'स्वस्ति श्री शाके ११५६ जय संवछरे फाल्गुन सुध तृतीय बुधे श्रीधंनापुर जभा... जनि रागिः ।
तत्पुत्रो महालुगिः स्वर्णवल्लभो जगतोप्यभूत् ॥ १ ॥ ताभ्यां बभूवश्चत्वाराः पुत्राश्चक्रेश्वरादयः । मुख्यश्चक्रेश्वरस्तेषु दानधर्मं गुणोत्तरः ||२|| चैत्यं श्री पार्श्वनाथस्य गिरौ चारणसेविते । चक्रेश्वरो सृजद्दानाद्धृताहुति च कर्मणां ॥३॥ बहूनि विम्बानि जिनेश्वराणां महानि तेनैव विरच्य सर्वतः ॥ श्रीचारणाद्रिगंमितः सुतीर्थतां कैलाशभूभृद् भरतेन यद्वत् ॥४॥ मूर्तिः स्थिरशुद्धदृष्टि: हृद्य सतीवल्लभकल्पवृक्षः । उत्पद्यते निर्मलधर्मपालश्चक्रेश्वरः पंचमचक्रपाणिः ||५||
इस मूर्ति - लेख में बताया गया है कि शक संवत् १९५६ ( ई. सं. १०७८) फाल्गुन सुदी ३ बुधवारको श्रीर्धनापुर (श्रीवर्धनपुर ) के राणुगिके चार पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र चक्रेश्वरने चारणाद्रि पर्वत पर पार्श्वनाथकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा करायी । उसने जिनेन्द्रदेवकी बहुत-सी मूर्तियाँ बनवायीं । इसके कारण चारणाद्रि तीर्थं बन गया जिस प्रकार भरत चक्रवर्ती द्वारा स्थापित मूर्तियोंके कारण कैलास तीर्थं बन गया । चक्रेश्वर वस्तुतः धर्ममूर्ति, सम्यग्दृष्टि, सर्वप्रिय, ब्रह्मचारियों के लिए कल्पवृक्षके समान, निर्मल धर्मपालक था ।