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________________ महाराष्ट्र दिगम्बर जैन तीर्थं २६९ मन्दिर के लिए मेन रोडपर स्थित घृष्मेश्वर मन्दिरके बगलसे एक कच्चा मार्ग जाता है। लगभग दो फर्लांग चलकर फिर पक्की सीढ़ियाँ मिलती हैं। सीढ़ियां चढ़कर पार्श्वनाथ मन्दिर पहुँच जाते हैं । मन्दिर आधुनिक है । यह प्राचीन मन्दिरके स्थानपर बनाया गया है । इसमें केवल मण्डप और गर्भगृह है | यहाँ भगवान् पार्श्वनाथकी मूर्ति १६ फीट उत्तुंग श्यामवर्ण अर्धपद्मासन है । इसके शिरोभागके ऊपर नोफणावली सुशोभित है। वक्षपर श्रीवत्स नहीं है । कर्ण स्कन्ध तक नहीं हैं । पीठासनपर सामने की ओर सिंह और गज उत्कीर्ण हैं । मध्य में सम्भवतः प्रतिष्ठाकारक दम्पती हाथ जोड़े बैठे हुए हैं । भगवान् के पीछे सवलय है । बायीं ओर एक दाढ़ीवाला भक्त हाथ जोड़े बैठा है | भगवान्का सेवक यक्ष धरणेन्द्र खड़ा है। दायीं ओर भगवान् की सेविका यक्षी पद्मावती खड़ी है । तथा दो भक्त हाथ जोड़े बैठे हुए हैं । भगवान्के चरणोंके निकट पार्श्वनाथकी एक लघु प्रतिमा विराजमान है । बाहर बरामदे में मंगलकलश लिये दो भक्त खड़े हैं । यह मन्दिर गुफाओंसे अलग एकान्तमें बना है । इस पर्वतको चारणाद्रि अथवा कनकाद्रि कहते हैं । इस सम्बन्ध में एक किंवदन्ती प्रचलित है कि यहां प्राचीनकालमें चारण ऋद्धिधारी मुनि आकर तपस्या करते थे । अतः इस पर्वतका नाम 'चारणाद्रि' पड़ गया । यहाँका एकान्त, शान्तिपूर्ण वातावरण तपस्या और ध्यानके लिए अत्यन्त अनुकूल है । पार्श्वनाथ भगवान् की यह मूर्ति अत्यन्त सौम्य, प्रशान्त और गम्भीर है । इसके दर्शन करनेसे मनमें शान्ति और वीतरागता - का उद्रेक होने लगता है । इस मूर्तिकी चरण-चौकीपर लेख अंकित है जिससे मूर्तिके निर्माता, निर्माणकाल आदि ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश पड़ता है । लेख इस प्रकार पढ़ा गया है— 'स्वस्ति श्री शाके ११५६ जय संवछरे फाल्गुन सुध तृतीय बुधे श्रीधंनापुर जभा... जनि रागिः । तत्पुत्रो महालुगिः स्वर्णवल्लभो जगतोप्यभूत् ॥ १ ॥ ताभ्यां बभूवश्चत्वाराः पुत्राश्चक्रेश्वरादयः । मुख्यश्चक्रेश्वरस्तेषु दानधर्मं गुणोत्तरः ||२|| चैत्यं श्री पार्श्वनाथस्य गिरौ चारणसेविते । चक्रेश्वरो सृजद्दानाद्धृताहुति च कर्मणां ॥३॥ बहूनि विम्बानि जिनेश्वराणां महानि तेनैव विरच्य सर्वतः ॥ श्रीचारणाद्रिगंमितः सुतीर्थतां कैलाशभूभृद् भरतेन यद्वत् ॥४॥ मूर्तिः स्थिरशुद्धदृष्टि: हृद्य सतीवल्लभकल्पवृक्षः । उत्पद्यते निर्मलधर्मपालश्चक्रेश्वरः पंचमचक्रपाणिः ||५|| इस मूर्ति - लेख में बताया गया है कि शक संवत् १९५६ ( ई. सं. १०७८) फाल्गुन सुदी ३ बुधवारको श्रीर्धनापुर (श्रीवर्धनपुर ) के राणुगिके चार पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र चक्रेश्वरने चारणाद्रि पर्वत पर पार्श्वनाथकी मूर्तिकी प्रतिष्ठा करायी । उसने जिनेन्द्रदेवकी बहुत-सी मूर्तियाँ बनवायीं । इसके कारण चारणाद्रि तीर्थं बन गया जिस प्रकार भरत चक्रवर्ती द्वारा स्थापित मूर्तियोंके कारण कैलास तीर्थं बन गया । चक्रेश्वर वस्तुतः धर्ममूर्ति, सम्यग्दृष्टि, सर्वप्रिय, ब्रह्मचारियों के लिए कल्पवृक्षके समान, निर्मल धर्मपालक था ।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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