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जैन दृष्टिसे राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र
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रहते थे। सिद्धराज के उत्तराधिकारी कुमारपालके दरबारमें भी वे बहुत काल तक रहे थे । उनके ही प्रभावसे कुमारपालने जैनधर्मं अंगोकार कर लिया और अपने गुरुके आदेशानुसार अनेक स्थानोंपर श्वेताम्बर मन्दिरोंका निर्माण और जीर्णोद्धार कराया। उसने अपने राज्यमें जीव-हिंसा और द्यूतपर प्रतिबन्ध लगा दिया । जयसिंहने सौराष्ट्रके शासक नवघन - जो दिगम्बर जैन था - को गिरफ्तार करके उसके स्थानपर सज्जन महताको प्रशासक नियुक्त किया । इसने भी गिरनारमें अत्यन्त कलापूर्ण जैन मन्दिर बनवाया । भीम द्वितीयने अपने मौसा धवलको व्याघ्रपल्ली ग्राम बखशीशमें दिया था । उसके पौत्र लवण प्रसादने ढोलका में अपनी राजधानी बनायी । प्राग्वाटवंशी वस्तुपाल और तेजपाल दोनों भाई उसके अमात्य थे । उन्होंने साढ़े बारह करोड़ रुपये व्यय करके आबू में नेमिनाथ मन्दिरका निर्माण किया । उनका बनवाया हुआ एक मन्दिर गिरनार में भी है ।
किन्तु इसी काल में कुमारपालके उत्तराधिकारी अजयपालने अनेक जैनोंका बध किया, अनेक जैन मन्दिरों और मूर्तियोंका विध्वंस किया । वह जैनोंका इतना विद्वेषी था कि उसने प्रसिद्ध श्वेताम्बराचार्य रामचन्द्रकी भी हत्या कर दी थी ।
इन निर्मम कृत्योंको एक ओर रखकर यदि विचार करें तो लगता है, ये गुर्जरनरेश - चाहे वे शैव हों या जैन - जैनोंके प्रति अत्यधिक उदार थे और उनके शासन कालमें अनेक जैन मन्दिरोंनिर्माण हुआ और विपुल साहित्य-सृजन हुआ ।
महाराष्ट्र
इस प्रदेशमें किसी तीर्थंकरका एक भी कल्याणक नहीं हुआ, किन्तु तीर्थंकरों का यहाँ विहार अवश्य होता रहा है । कुण्डल, तेर आदि स्थानोंपर तो यह अनुश्रुति अबतक प्रचलित है कि यहाँ भगवान् महावीरका समवसरण आया था । यहाँ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहाँ प्राचीन कालमें मुनिजन तपस्या किया करते थे और जहाँ उन्होंने घोर तप द्वारा कर्मों का विनाश करके निर्वाण प्राप्त किया था । ऐसे निर्वाणक्षेत्रोंका नाम है - गजपंथा, मांगीतुंगी, कुन्थलगिरि । इस प्रदेशमें अतिशय क्षेत्र और गुहामन्दिर तो अनेक हैं । ऐलोरा, धाराशिव जैसी प्रसिद्ध गुफाएँ यहीं हैं ।
इस प्रदेश से कई महान् जैनाचार्योंका सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । आचार्य वीरसेन के विद्यागुरु ऐलाचार्यका विहार ऐलोरा गुफाओंवाले पर्वत और उसके निकटस्थ शूलिभंजनमें बहुत काल तक हुआ। उन्हीं के नामपर इस पर्वतका नाम एलापुर पड़ गया । उस कालमें शूलिभंजन राष्ट्रकूट नरेशोंकी उपराजधानी था । आचार्य जिनसेनने यहाँ और वाटग्राममें रहकर अपने गुरुवर्य आचार्यं वीरसेन के स्वर्गवास हो जानेपर जयधवला टीकाके अवशिष्ट भागपर चालीस हजार श्लोक प्रमाण टीका लिखी थी । उसे शक संवत् ७५९ में कोल्हापुरके नेमिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिरमें बैठकर समाप्त किया, ऐसी भी अनुश्रुति है । शूलिभंजन में राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष (ध्रुवगोविन्द जगत्तुंग ) का बाल्यकाल व्यतीत हुआ । उसने आचार्य जिनसेनसे जैन सिद्धान्तका ज्ञान प्राप्त किया और उन्हींसे जेनधर्मंकी दीक्षा ली । अकोला जिले में बाड़ेगाँव नामक एक ग्राम है । यहाँ कुछ वर्ष पूर्व सैकड़ों प्राचीन स्वर्ण मुद्राएँ उत्खनन में प्राप्त हुई थीं । प्राचीन कालमें इस ग्रामका नाम वटग्राम था । आचार्यं वीरसेन अपने गुरु ऐलाचार्यं से सिद्धान्त ग्रन्थोंका अध्ययन करके चित्रकूटसे इसी ग्राम में पधारे थे और आनतेन्द्र द्वारा बनवाये हुए जिनालय में ठहरे थे । यहींपर उन्हें वप्पदेवकी व्याख्या प्रज्ञप्ति नामकी टीका प्राप्त हुई थी। इस टीकाके अध्ययनसे उन्होंने यह अनुभव किया कि इसमें सिद्धान्त के अनेक विषयोंका विवेचन स्खलित है । अतएव एक बृहत् टीकाके निर्माणको आवश्यकता है । ऐसा विचार कर उन्होंने धवला और जयधवला टीका लिखीं।