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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ राजस्थानमें यादव, चाहमान (चौहान), परमार, गुहिल, सीसौदिया, झाला आदि अनेक राजपूत राजवंशोंने राज्य किया है, किन्तु इनमें कोई जैन नरेश नहीं था। किन्तु उदयपुर, जोधपुर, जैसलमेर, जयपुर, भरतपुर आदि राज्योंमें प्रधान अमात्य, सेनापति एवं कोषाध्यक्ष पदोंपर प्रायः जैन ही नियुक्त किये जाते थे। सम्भवतः इसका कारण जैनोंकी नीतिकुशलता, चारित्रिक दृढ़ता, वीरता, और ईमानदारी था। एक अन्य भी कारण रहा होगा। जैन प्रायः सम्पन्न होते थे। राज्यको धनकी आवश्यकता पड़नेपर वे धन जुटा सकते थे। मातृभूमिको रक्षाका प्रश्न आनेपर वे मातृभूमिके लिए अपना सर्वस्व समर्पण करने में कभी संकोच नहीं करते थे। जब महाराणा प्रताप राज्य गवाकर जंगलोंमें एकाकी निराश भटक रहे थे, उस समय उनके सेनापति और कोषाध्यक्ष भामाशाहने अपने जीवन-भरको संचित पूंजी लाकर महाराणाके चरणोंमें रख दी थी। वह पूँजी नगण्य नहीं थी, बल्कि इतनी थी, जिससे २५००० सैनिकोंको विशाल सेना १२ वर्ष तक युद्ध कर सकती थी। इसी धनके बलपर महाराणा प्रतापने सेना संग्रह करके युद्ध लड़ा और चित्तौड़को छोड़कर शेष सम्पूर्ण राज्य मुक्त करा लिया। इतिहासमें मातृभूभिके लिए दिये गये ऐसे विशाल दानका उदाहरण दूसरा नहीं मिलता।
__ राजस्थानमें कोई सिद्धक्षेत्र नहीं है और न कोई कल्याणक क्षेत्र ही है। अतिशय क्षेत्रोंकी संख्या भी कुल १६-१७ है । कलातीर्थों में एक ओर श्वेताम्बर जैनों द्वारा निर्मित आबूके संगमरमरके और राणकपुर एवं कुम्भारियाके देशी पाषाणके कलापूर्ण मन्दिर हैं तो दूसरी ओर दिगम्बर जैन जीजा और उसके पुत्र पुण्यसिंह द्वारा निर्मित चित्तौड़का चन्द्रप्रभ जिनालय और उसका कीर्तिस्तम्भ है जो अपनी उत्कृष्ट कला और शानदार स्थापत्यके लिए जगद्विख्यात है। इस प्रदेशके चित्रकूट (चित्तौड़) नगरमें आचार्य एलसे वीरसेनने आठवीं शताब्दोके अन्तिम चरणमें सिद्धान्त ग्रन्थोंका अध्ययन किया था।
इस प्रदेशमें जैनोंकी संख्या विशाल है । यहाँके निवासी अपनी व्यावसायिक और औद्योगिक विचक्षणताके लिए संसार-भरमें प्रसिद्ध हैं। भारतके प्रायः सभी प्रान्तोंमें इनके व्यापार और उद्योग-प्रतिष्ठानोंका जाल फैला हुआ है। गुजरात
__ इस प्रदेशको बाईसवें तीर्थंकर भगवान् नेमिनाथके गिरनारमें दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण कल्याणक मनानेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। गिरनारमें धर्म-चक्र-प्रवर्तन करके भगवान्ने इस सम्पूर्ण प्रदेशमें विहार किया था और उनकी कल्याणी वाणीके द्वारा अनेक भव्य जीवोंने अपना कल्याण किया था।
गिरनारके अतिरिक्त इस प्रदेशमें तारंगा, शत्रुजय और पावागढ़ सिद्धक्षेत्र भी हैं। अतिशय क्षेत्रोंकी संख्या अधिक नहीं है। यहाँ अतिशय क्षेत्र केवल ४ हैं। आचार्य पुष्पदन्त और आचार्य भूतवलिने आचार्य धरसेनसे सिद्धान्त शास्त्रोंका ज्ञान ग्रहण करके सर्वप्रथम चातुर्मास अंकलेश्वरमें किया था और यहीं रहकर उन्होंने श्रुतको निबद्ध करनेकी योजना बनायी थी।
गुजरातका मध्यकालीन इतिहास अनहिलपाटनके चालुक्यवंशी नरेशोंके शौर्य, कलाप्रेम और मन्दिर-निर्माण-जैसे उच्चादर्शोसे अनुप्राणित है, वहीं उनके धर्मोन्मादसे कलंकित भी रहा है । गूर्जर चालुक्य नरेश भीमने लगभग सन् १०३१ में आवको परमार धांधुकसे छीनकर प्राग्वाटवंशी विमलको वहांका प्रशासक नियुक्त किया, जिसने १८ करोड़ रुपये व्यय करके वहाँ संसारप्रसिद्ध आदिनाथ मन्दिरका निर्माण किया। जयसिंह सिद्धराजके दरवारमें प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचन्द्र