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महाराष्ट्र के दिगम्बर जैन तीर्थ ठहरनेके काम आते हैं। मन्दिरमें बिजली है, कुआं है और यात्रियोंको सुविधाके लिए बरतनोंकी भी व्यवस्था है। शौचके लिए गांवसे बाहर जाना पड़ता है। मेला
क्षेत्रपर चैत वदी ४ को वार्षिक मेला होता है। इस अवसरपर भगवान्को पालकीमें विराजमान करके उनकी नगर-यात्रा होती है। मेले में निकटवर्ती ग्रामोंसे २००-३०० धर्मबन्धु पधारते हैं। क्षेत्र का पता इस प्रकार है
ट्रस्टी, श्री दिगम्बर जैन विघ्नहर पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र, पो. आष्टा कासार ( तालुका उमर्गा)
जिला उस्मानाबाद-महाराष्ट्र
ऐलौराके गुहामन्दिर मार्ग और अवस्थिति
ऐलौराकी जगद्विख्यात गुफाएँ और गुहामन्दिर महाराष्ट्र प्रान्तके औरंगाबाद नगरसे पश्चिम दिशामें ३० कि. मी. दूर हैं। ऐलौरा ( वर्तमान वेरूल ग्राम) तक पक्की सड़क है और औरंगाबादसे वहाँ तक नियमित बस-सेवा है। ऐलौराकी पहाड़ी समुद्रतलसे २२ फुट ऊंची है। यह सह्याद्रि पर्वत शृंखलाकी एक कड़ी है। यहांको जलवायु समशीतोष्ण है और दृश्य अत्यन्त मनोरम एवं नयनाभिराम है।
यहां कुल ३४ गुफाएं हैं। ये सभी गुफाएँ किसी एक धर्मसे सम्बन्धित नहीं हैं, अपितु भारतके तीन प्राचीन धर्मों-जैन, हिन्दू और बौद्धसे सम्बन्धित हैं। गुफा नं. १ से १२ तककी गुफाएं बौद्ध धर्मकी हैं, १३ से २९ तककी गुफाएं शैव धर्मावलम्बियोंकी हैं तथा क्रमांक ३० से ३४ तक गुफाएँ जैन धर्मसे सम्बन्धित हैं । इतिहास
इतिहास ग्रन्थोंमें इस नगरका प्राचीन नाम एलापुर बताया है। इस नगरको स्थापना और उसके नामकरणके सम्बन्धमें विद्वान् एकमत नहीं हैं। किन्हीं विद्वानोंका मत है कि इस नगरका नामकरण सुप्रसिद्ध जैनाचार्य एलाचार्यके नामपर किया गया था। ऐलाचार्य कुन्दकुन्द स्वामीका भी एक नाम है। किन्तु प्रस्तुत एलाचार्य वीरसेन स्वामीके विद्यागुरु थे। स्वामीने जयधवलामें एक स्थानपर 'एलाइरियवस्सजस्स णिच्छओ' इस पद द्वारा ऐलाचार्यका स्मरण किया है और अपने आपको उनका शिष्य स्वीकार किया है। उन पूज्य ऐलाचार्यका बिहार इस प्रदेशमें सतत होता रहता था। वे विद्वान्, चरित्रनिष्ठ और प्रभावशाली आचार्य थे। उनके नामपर ही इस नगरको ऐलापुरकी संज्ञा प्राप्त हो गयी।
एलापुरके निकट शूलिभंजन नगर था, जो उस समय राष्ट्रकूट नरेशोंकी उपराजधानी थो। राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष (ई. ८१४-८७७) राजकूमार अवस्थामें यहीं रहता था। उस समय आचार्य जिनसेन एलापुरमें अपने गुरु वीरसेन द्वारा जयधवलाके अधूरे छोड़े हुए कार्यको पूरा करने में लगे हुए थे। ( उन्होंने यह टीका सन् ८३८ में पूर्ण की।) उस समय राष्ट्रकूट वंशके