SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ २५३ आये थे। इस सम्बन्धमें हरिषेण कथाकोष', करकण्डुचरिउ आदि ग्रन्थोंमें महत्त्वपूर्ण विवरण उपलब्ध होता है । इनमें बताया है कि विजयाध पर्वतपर रहनेवाले रूप और यौवनसे सम्पन्न नल और नील नामक दो भाई तेर नगरमें आये। उन्होंने इस नगरके निकट पर्वतपर भगवान् पार्श्वनाथकी एक लयण ( गुफा ) का निर्माण किया। उसमें सहस्र स्तम्भ बने थे किन्तु निरन्तर जलकी धारा पड़नेसे वह लयण नष्ट हो गया। इसके पश्चात् उपयुक्त ग्रन्थों के अनुसार भगवान् पार्श्वनाथके तीर्थमें हुआ करकण्डु नरेश दिग्विजय करता हुआ यहाँ आया था। ___ इसके बाद अनेक शताब्दियों तक इस नगरका नाम अन्धकारमें डूबा रहा। किन्तु १०वीं शताब्दीमें शिलाहार नरेशोंके कालमें इस नगरको विशेष महत्त्व प्राप्त हो गया। इन नरेशोंकी महाराष्ट्रीय शाखाका शासन कराड़, कोल्हापुर, मिरज आदिपर था और ये सभी नरेश 'तगरपुरवराधीश्वर' विरुद धारण करते थे। तेर का नाम ही उस समय तगरपुर था। इस शाखाके राज्यका संस्थापक जतिग था। राष्टकट नरेशोंके हास कालमें ये नरेश एक प्रकारसे स्वतन्त्र हो गये। इन्होंने ११वीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध में दक्षिण कोंकणको भी अपने राज्यमें मिला लिया था। जतिगके पश्चात् इस वंशमें गण्डरादित्य और विजयादित्य प्रसिद्ध नरेश हुए। इस वंशका ध्वज स्वणं गरुड़ ध्वज था। ये नरेश अपने-आपको विद्याधर नरेश जीमूतकेतु (जिसने गरुड़को अपने शरीरका सम्पूर्ण मांस खिला दिया था) के पुत्र जीमूतवाहनके वंशज कहते थे। इन नरेशोंके शासन-कालमें तेर ( तगर ) को श्रीसमृद्धि बहुत बढ़ी। शिलाहार नरेशोंके शासनकालके पश्चात् तेरका वैभव धीरे-धीरे समाप्त हो गया। शिलाहार वंशी नरेशोंके शासन काल में ( सम्भवतः गण्डरादित्यके शासन-कालमें ) तेरमें वर्तमान जैन मन्दिरका निर्माण हुआ था और अनेक मूर्तियोंकी प्रतिष्ठा हुई थी। स्वयं गण्डरादित्यने मिरज जिलेमें गण्डर समुद्र नामक एक विशाल तालाबका निर्माण कराया था और उसके तटपर अनेक जैन, हिन्दू और बौद्ध मन्दिर बनवाये थे। उन मन्दिरोंके रख-रखावके लिए उसने अनेक गांव भी दानमें दिये थे । यह नरेश १२वीं शताब्दीके पूर्वार्द्ध में हुआ था। उत्तरकालीन साहित्यमें तेर-शिलाहार वंशके बाद सम्भवतः तेरका वैभव क्षीण हो गया, किन्तु लगता है, इसका एक अतिशय-क्षेत्रके रूपमें महत्त्व कई शताब्दियों तक कायम रहा। भट्टारक युगके कई लेखकोंने इसका उल्लेख किया है। __ १६वीं शताब्दीके मेघराजने 'तेर पुरे वड्ढमाण' इस रूपमें अपनी गुजराती 'तीर्थवन्दना' में उल्लेख किया है। १६वीं शताब्दीके अन्तिम चरण तथा १७वीं शताब्दीके प्रारम्भमें हुए ब्रह्मज्ञानसागरने 'सर्वतीर्थ वन्दना' में तेरके सम्बन्धमें एक छप्पय लिखा है जो इस प्रकार है 'तेरनपुर सुप्रसिद्ध स्वर्गपुरी सम जाणो। वर्धमान जिनदेव तास तिहाँ चैत्य बखाणो। पाप हरत सुख करत अतिशय श्रीजिनकेरो। भविक लोक भयहरत दर करत भवफेरो। १. विद्याछेदं विधायाशु दायादः पुरुविक्रमैः । ततो निर्घाटितौ सन्तौ तेराख्यं पुरमागतौ ॥
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy