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________________ महाराष्ट्र के दिगम्बर जैन तीर्थ ही 'धाराशिव गुफाएँ' पड़ गया। उस कालमें तेर नगरका विशेष महत्त्व था और गुफाओंवाला क्षेत्र तेरका प्रभाव क्षेत्र था। अतः साहित्यमें कहीं-कहीं इन्हें तेरकी गुफाएँ भी कह दिया गया है। अतिशय क्षेत्र प्राचीन काल में धाराशिवके पाश्वनाथको अग्गलदेव या अर्गलदेव कहा जाता था। इनके अतिशयोंके कारण इनकी बड़ी मान्यता थी। ये अग्गलदेव इतने विख्यात थे कि आचार्योंने केवल अग्गलदेवका उल्लेख किया है, उसके साथ नगर तक का उल्लेख करनेकी आवश्यकता उन्होंने अनुभव नहीं की। प्राकृत निर्वाण-काण्डमें केवल 'अग्गलदेवं वंदमि' लिखना ही पर्याप्त समझा। विश्वभूषण (१७वीं शताब्दीका उत्तरार्ध) ने भी 'अर्गलदेवं वंदे नित्यं' लिखकर अगलदेवकी वन्दना की है। किन्तु अनेक लेखकोंने अग्गलदेव अथवा अर्गलदेवकी स्पष्ट पहचानके लिए उसके साथ धाराशिवका भी उल्लेख किया है। जैसे गणकीर्तिने 'धारासिवनगरि आगलदेवासि नमस्कार माझा' इस पद्यमें स्पष्ट किया है कि धाराशिव नगरीके आगलदेवको मैं नमस्कार करता हूँ। इसी प्रकार जयसागरने 'सुआगलदेव धारासिव ठाम' लिखकर गुणकीर्तिका ही अनुकरण किया है। ज्ञानसागरने 'सर्वतीर्थ वंदनामें' आगलदेवका स्मरण छप्पय छन्दमें इस प्रकार किया है "धारासिव सुभ ठाण स्वर्गपुरीसम लहिए । आगलदेव जिनेश नामथी पातक दहिए। पर्वतमध्य निवास महिमा नहिं पारह। सेवत नवविधि होय पूजत सुखभंडारह ।। आगलदेव तणी कथा सुणतां पातक परिहरे। ब्रह्म ज्ञानसागर वदति मनवांछित पूरण करे ॥" उदयकीर्तिने आगलदेवकी स्थिति स्पष्ट करनेके लिए उन्हें करकण्डु राजा द्वारा निर्मित बताया है । यथा-'करकंडराय णिम्मियउ भेउ । हउँ वंदउँ आगलदेव देउ ॥' उपर्युक्त विद्वान् १३वीं शताब्दीसे १७वीं शताब्दी तकके हैं। अर्थात् धाराशिवके पाश्वनाथकी अर्गलदेवके रूपमें १७वीं शताब्दी तक तो निश्चित रूपसे ख्याति रही है। अर्गलदेवके रूपमें यह मान्यता कब और कैसे धुंधली पड़ती गयो, यह जाननेका कोई साधन नहीं है। क्षेत्र-दर्शन यहाँ पर्वतपर ४ गुफाएँ उत्तराभिमुखी बनी हुई हैं। इसी प्रकार ३ गुफाएँ दक्षिणाभिमुखी हैं। दोनोंके मध्यमें उत्तराभिमुखी गुफाओंके सामने शिवगुरुका मन्दिर बना है। दक्षिणाभिमुखी गुफाओंमें मूर्तियां नहीं हैं, केवल एक गुफामें पार्श्वनाथकी जीणं मूर्ति है। ये गुफाएँ और मूर्तियां पुरातत्त्व विभागके संरक्षणमें हैं। किन्त वास्तवमें पुरातत्त्व विभाग इतनी बहमल्य परातन सामग्रीकी ओरसे उदासीन है। यहाँकी मुख्य गुफाका प्रवेश भाग गिर गया है। उसके कारण गुफामें अन्धकार रहता है, यात्रियोंको प्रवेश करनेमें भी असुविधा होती है तथा गुफाके शेष भागके गिरनेका भी खतरा है। सफाई और प्रकाशके अभावमें गुफाओंमें चमगादड़ोंका साम्राज्य है। गुफा नं.१-यहाँ हम मुख्य गुफाकी ओरसे दर्शन करेंगे। इस गुफाका प्रवेश भाग गिर गया है। पहाड़की बड़ी-बड़ी शिलाएँ तथा बाहरी भाग गिरकर गुफाके द्वारपर मलवेका ढेर एकत्रित हो गया है। इस मलवेके कारण द्वार अवरुद्ध हो गया है और गुफामें अन्धकार व्याप्त हो गया है। अन्दर प्रवेश करनेके लिए छोटा-सा मार्ग शेष है । प्रवेश करते समय भय बना रहता है कि कहीं कोई शिला ऊपरसे आकर गिर न पड़े। ३२
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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