SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 278
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ २४७ स्वीकार कर ली और बहुमूल्य भेंट देकर उसे सन्तुष्ट किया। एक दिन तेर नरेश शिव उससे सविनय निवेदन करने लगा-"देव ! यहां निकट ही एक पर्वतपर बड़ी आश्चर्यजनक घटना होती है। उस पर्वतके भीलराजने मुझे उस घटनाका विवरण बताया है। उस पर्वतपर एक वामी है। एक गज प्रतिदिन सूंडमें जल भरकर और अद्भुत कमल-पुष्प लेकर उस वामी तक आता है। वह वामीपर जल छिड़कता है, वहां कमल-पुष्प चढ़ाता है और वामीको नमस्कार करके चला जाता है। यदि देव प्रसन्न हो तो आप भी इस आश्चर्यको देखनेका अनुग्रह करें।" ___करकण्डु नरेशको भी यह सुनकर देखनेकी उत्सुकता हुई। वह अनेक नरेशों, अमात्यों और पुरजनोंसे परिवृत हुआ पर्वतकी ओर चल दिया। वहां पहुंचकर सबने उस वामीको देखा। तभी उन्हें एक गज आता हुआ दिखाई पड़ा। गज वामीके पास आकर खड़ा हो गया। उसने सूंडमें भरा हुआ जल वामीके ऊपर छिड़का, पश्चात् वामीपर कमल चढ़ाया और सिर झुकाकर वनमें चला गया। यह देखकर सभीको बड़ा आश्चर्य हुआ। करकण्डु नरेश कुछ देर विचार करके बोला-"प्रतीत होता है, इस वामीके नीचे कोई जिन-प्रतिमा है। इस गजको अवधिज्ञान द्वारा अथवा किसी प्रकार इस प्रतिमाका ज्ञान हो गया है। अतः यह प्रतिदिन प्रतिमाकी पूजा करने आता है।" फिर करकण्डु महाराजके सुझावपर जब वामीको खुदवाया गया तो वहां पाश्वनाथ भगवान्की अत्यन्त मनोज्ञ प्रतिमा दिखाई पड़ी। सबने भक्तिपूर्वक भगवान्के दर्शन और पूजन किये। सहसा करकण्डुको प्रतिमाके पादपीठपर एक गांठ दिखाई पड़ी। उसने आदेश दिया"इस गांठको तोड़ दिया जाये। इससे प्रतिमाकी सुन्दरतामें निखार आ जायेगा। तत्काल मूर्तिशिल्पी बुलाये गये। गांठ देखकर मुख्य शिल्पी हाथ जोड़कर बड़ी विनयपूर्वक बोला"राजाधिराज ! मेरी धृष्टता क्षमा करें। यदि यह गांठ तोड़ी गयी तो अनर्थ हो जायेगा।" किन्तु राजहठके आगे किसी की नहीं चली । गांठ तोड़ी गयी। गांठके टूटते ही उसमें-से जलधारा निकल पड़ी। फिर प्रयन्न करनेपर भी जलधारा नहीं रुकी। करकण्डु नरेशको एक विद्याधरसे यह भी ज्ञात हुआ कि रथनूपुरके नील और महानील नामक दो विद्याधर नरेश शत्रुसे पराजित होकर तेरमें आ बसे और वहीं अपना राज्य स्थापित कर लिया। एक बार वे लंकाकी यात्राको गये। लौटते हुए मलय देशके पूदी पर्वतपर एक जिनालयमें उक्त पार्श्वनाथ प्रतिमाके दर्शन करके मनमें उन्हें विचार उत्पन्न हुआ कि इस प्रतिमाको हम अपने नगरमें ले चलेंगे और ऐसी ही मनोज्ञ प्रतिमा बनवायेंगे। यह सोचकर वे उस प्रतिमाको ले आये। रातमें विश्राम करनेके लिए वे इस पर्वतपर उतरे। प्रातःकाल होनेपर उन्होंने ले जानेके लिए प्रतिमा उठायी, किन्तु वह उठ नहीं सकी, वहीं अचल हो गयी। तब उन्होंने वहीं एक सहस्र स्तम्भोंवाली लयण बनवा दी। किन्तु वह लयण निरन्तर जलधाराके कारण टूट-फूट गयी। करकण्डने उसी लयणको पनः बनवाया। उसके अतिरिक्त दो लयण और बनवाये और उनमें पार्श्वनाथकी प्रतिमाएं विराजमान करायीं। दक्षिणके सम्पूर्ण नरेशोंपर विजय प्राप्त करके करकण्डुने वंगको जीता। पश्चात् उसने अंगपर आक्रमण किया। दोनों ओरकी सेनाएं आमने-सामने आ डटीं। दधिवाहन और करकण्डु भी एक दूसरेके सम्मुख डट गये। तभी एक स्त्री दौड़ती हुई आयी। उसने हाथ उठाकर दोनोंको रोकते हुए कहा-"यह युद्ध बन्द करो, अन्यथा अनर्थ हो जायेगा। पिता और पुत्रको मैं अपने नेत्रसे शत्रके रूपमें आमने-सामने खडा हआ नहीं देख सकती।"
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy