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________________ २४६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ रही। अनेक योजनोंकी यात्राके पश्चात् जब गज शान्त हआ तो एक पद्म सरोवरको देखकर जलमें आलोडनकी इच्छासे धीमी गतिसे जलमें घुसा। रानी अवसर देखकर गजके ऊपरसे कूद पड़ी और वनमें एक ओर चल दी। चलते-चलते वह एक श्मशानमें पहुंची। वहां उसे प्रसव-पीड़ा हुई। भाग्यकी यह कैसी विडम्बना थी कि एक राजरानीके प्रसवके समय परिचर्या के लिए कोई परिचारिका भी नहीं थी। रानीने पुत्र-प्रसव किया। तभी एक शापग्रस्त विद्याधर चाण्डाल-वेषमें वहां आया और अपनी शाप-कथा विस्तारसे बताकर कहने लगा-"देवी ! अनेक वर्षोंसे मैं इस श्मशानमें इस पुण्यवान् बालकको प्रतीक्षा कर रहा था। इसके कारण ही मुझे शापसे मुक्ति मिल सकेगी। निमित्तज्ञोंने ऐसा ही बताया है । मैं इस बालकका अपने पुत्रके समान लालन-पालन करूंगा। इसे आप मुझे दे दें।" रानीने अपना सद्यःजात शिशु उस चाण्डालको दे दिया। शिशुको देकर वह एक आर्यिकाके आश्रममें चली गयी। बालकके हाथमें जन्मसे खुजली थी, अतः उसका नाम करकण्डु रख दिया गया। पद्मावती दूर रहकर भी अपने प्राणप्रिय पूत्रका ध्यान रखती थी। बालक करकण्डु अब किशोर हो गया। एक दिन वह भ्रमण करता हुआ वनमें पहुंचा। जब वह श्रान्त हो गया तो एक वृक्षकी छाया में बैठ गया। उसी दिन उस नगरके नरेशकी मृत्यु हो गयी थी । नरेशके कोई सन्तान नहीं थी। सिंहासन सूना नहीं रखा जा सकता था। अतः अमात्योंने निश्चय किया कि राजगजको जलसे पूर्ण कलश देकर छोड़ दिया जाये। वह जिसका अभिषेक कर दे, उसीका राज्याभिषेक कर दिया जाये। इस निर्णयके अनुसार गज छोड़ा गया। वह नगरमें घूमता रहा, किन्तु उसने किसीका भी अभिषेक नहीं किया। राज्याधिकारी और सेवक राजगजके साथ थे। सारे नगर में भ्रमण करता हआ राजगज वनमें चल दिया। वह भ्रमण करता हुआ उधर जा निकला, जिधर करकण्डु वृक्षके नीचे चिन्तामग्न बैठा हुआ था। उसको पता तक नहीं चला कि कब राजगज उसके समीप आ खड़ा हआ। राजगजने जब कलशका जल उसके सिरपर उड़ेल दिया तो वह हड़बड़ाकर उठ बैठा और आश्चर्यचकित नेत्रोंसे कभी राजगजको और कभी राजकर्मचारियोंको देख रहा था। राजकर्मचारियोंने उसका आश्चर्य दूर करते हुए विनयपूर्वक निवेदन किया-"आप इस नगरके नरेश मनोनीत हुए हैं। आप हमारे साथ राजप्रासाद चलें, वहां आपका राज्याभिषेक किया जायेगा।" वह राजगजपर आरूढ़ होकर राजप्रासाद पहुंचा। वहाँ शुभलग्नमें राजपुरोहित और अमात्योंने विधिवत् उसका राज्याभिषेक करके राजसी वस्त्रालंकार और मुकुट पहनाकर सिंहासनपर बैठाया। राज्यासीन होते ही करकण्डुने राजसी सम्मानके साथ अपने विद्याधर माता-पिताको राजमहलोंमें बुला लिया। उसने अल्प समयमें ही राज्यमें बहुमुखी सुधार किये, जिससे सम्पूर्ण प्रजा अपने नवीन राजासे बहुत प्रसन्न हुई, साथ ही राजकोष भी बहुत बढ़ गया। राज्यमें खुशहाली हो गयी। सभी ओर उसको जयजयकार होने लगी। उसने राज्यकी स्थिति सुदृढ़ बना दी। राज्यकी सैनिक शक्तिमें भी उसने पर्याप्त वृद्धि की। उसने कलिंग देशके दन्तिपुर नगरको अपनी राजधानी बनाया। आन्तरिक स्थिति सुदृढ़ करनेके पश्चात् उसने आसपासके राज्योंको जीतना प्रारम्भ कर दिया। अनेक राजाओंने उसका माण्डलिक बनना स्वीकार कर लिया। अब सम्पूर्ण कलिंगपर उसका अधिकार हो गया। तब शुभ मुहूर्तमें वह दिग्विजयके लिए निकला। सर्वप्रथम उसने दक्षिणके राज्योंकी ओर ध्यान दिया। वह जहां भी गया, विजयश्रीने उसके चरण चूमे। वह अपने इस विजय-अभियानके सन्दर्भ में तेर नगरमें आया। वहांके राजाने उसकी आधीनता
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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