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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ वर्षवाली सल्लेखनाका नियम ले लिया। तभीसे उन्होंने उपवासोंकी संख्या बढ़ा दी। सन् १९५३ में आचार्यश्रीका चातुर्मास कुन्थलगिरि क्षेत्रपर हुआ। अब वे लम्बे-लम्बे उपवास करने लगे थे। इसके दो वर्ष पश्चात् आचार्यश्री नीरा ग्राममें पधारे। उनके भाव मुक्तागिरिकी ओर जानेके थे। किन्तु कुन्थलगिरि क्षेत्रके लोगोंने उनसे कुन्थलगिरि चलनेका विशेष आग्रह किया, तब महाराज कुन्थलगिरिकी पावन भूमिमें पहुंचे। वहां आचार्यश्रीके मनमें एक भावना बार-बार उदित होती थी-"शरीर तो अवस्थाके अनुरूप ठीक है, किन्तु आँखोंकी ज्योति मन्द हो रही है। इन्द्रियां और मन तो मेरे आधीन हैं । अतः इन्द्रिय संयममें कोई बाधा नहीं है किन्तु नेत्रोंकी ज्योति निर्बल होनेके कारण प्राणी संयमका निर्दोष रीतिसे पालन होना कठिन होता जा रहा है।" एक दिन इस भावनाने निश्चयका रूप ले लिया। १४ अगस्त १९५५ को आहार लेनेके पश्चात् उन्होंने केवल जल रखकर सभी प्रकारके आहारका सर्वथा त्याग कर दिया और यम सल्लेखना ले ली। उनके ८४ वर्षके जीवन में १४ अगस्तका आहार उनका अन्तिम आहार था।
आचार्यश्री द्वारा यम सल्लेखना ग्रहण करनेका समाचार सारे देशमे बड़ी चिन्ताके साथ सुना गया। देशके सभी भागोंसे आचार्यश्री के दर्शनाथं हजारों व्यक्ति कुन्थलगिरि पहुंचने लगे। कोलाहल और भीड़भाड़के बावजूद उन योगिराजकी समाधि शान्तिपूर्वक चलती रही। उनका शरीर निरन्तर क्षीण हो रहा था, किन्तु उनका आत्मबल उससे सहस्र गुना बढ़ रहा था। ४ सितम्बर को जल ग्रहण करनेके पश्चात् उन्होंने जलका भी त्याग कर दिया। ८ सितम्बरको उन्होंने २२ मिनट पर्यन्त लोक-कल्याणकारी अन्तिम सन्देश दिया जो रिकार्ड किया गया। १८ सितम्बर १९५५ को प्रातःकाल ६.५० पर भाद्रपद शुक्ला २ रविवारको हस्त नक्षत्र और अमृत सिद्धियोगमें उस चारित्रचक्रवर्ती महायोगीने इस मानव-देहको त्यागकर स्वर्गलोक प्रयाण किया। उनकी आयु उस समय ८४ वर्षकी थी।
___ आचार्यश्रीके उस तपःपूत शरीरको उपर्युक्त प्रवेश-द्वारके बाहर बायीं ओर एक उन्नत स्थानपर जनताके दर्शनार्थ रख दिया गया। मध्याह्नमें वह पार्थिव शरीर एक काष्ठ-विमानमें विराजमान करके जलूसके साथ क्षेत्रके बाहर बनी पाण्डुक शिला तक ले जाया गया और फिर पर्वतकी परिक्रमा देकर पूनः पर्वतपर मानस्तम्भके निकट मैदान में रख दिया गया। पश्चात् उनका अग्नि-संस्कार किया गया। यह अन्तिम संस्कार कोल्हापूर जैनमठके भट्टारक स्वर्गीय श्री लक्ष्मीसेन स्वामीने १५००० लोगोंके समक्ष शास्त्रानुसार कराया । आचार्य महाराजके शरीरका अग्नि-संस्कार करने में इस प्रकार सामग्री काममें आयी-२५ मन चन्दन, ६० किलो घी, १२०० किलो नारियल तथा तीन बोरा कपूर।
आचार्यश्रीका पार्थिव शरीर जहाँ दर्शनार्थ रखा गया था, वहां छतरीका निर्माण करके आचार्यश्रीके चरणोंके मापके ११ इंच आकारके श्वेत पाषाणके चरण विराजमान कर दिये गये तथा जहाँ आचार्यश्रीका अन्तिम संस्कार किया गया था, वहाँ एक चबूतरा बनाकर पाषाणचरण विराजमान कर दिये गये हैं।
३. बाहुबलि मन्दिर प्रवेश-द्वारके दायीं ओर चौकमें बाहुबली स्वामीकी मकरानेकी १७ फोट ६ इंच ऊँची खड्गासन प्रतिमा है । इसकी प्रतिष्ठा सन् १९७२ में हुई थी।
४. आदिनाथ मन्दिर-इसके निकट आदिनाथ मन्दिरमें वेदीपर भगवान् आदिनाथकी ४ फूट ६ इंच ऊँची संवत् १९३२ में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण पद्मासन प्रतिमा है। इसके अतिरिक्त वेदीपर २२ धातु मूर्तियां और हैं तथा पद्मावतीकी १ पाषाण प्रतिमा है।