________________
महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ है। बाबावड़ ग्रामके ब्रह्मचारी मेटाशाह हूमड़को एक बार स्वप्न हुआ कि कुन्थलगिरि पर्वतपर जहाँ गाय अपने बछड़ेको दूध पिलायेगी, वहाँ भूमिके नीचे कुलभूषण-देशभूषण मुनियोंके चरणचिह्न दबे पड़े हैं। ब्रह्मचारीजीने अपने इस स्वप्नकी चर्चा लोगोंसे की। तब ब्रह्मचारीजी कुछ लोगोंको लेकर पर्वतपर गये । वे चारों ओर खोज करने लगे। तभी उन्हें एक गाय बछड़ेको दूध पिलाती हुई दिखाई पड़ी। सब लोग उस स्थानपर पहुंचे। उन्होंने उस स्थानको खोदा तो उन्हें पाषाणके चरण-चिह्न दिखाई पड़े। उन्हें निकाला गया और उनका प्रक्षाल करके सबने भक्तिपूर्वक दोनों मुनियोंकी पूजा की तथा एक ऊंची शिलापर उन्हें विराजमान कर दिया।
संवत् १९३२ में सेठ हरिभाई देवकरणने ईडरके भट्टारक कनककीति द्वारा यहाँके मन्दिरकी प्रतिष्ठा करायी और उसमें चरण-चिह्न विराजमान किये।
वेदीमें चरण-चिह्नोंके अतिरिक्त दोनों मुनियोंकी ३ फीट १ इंच ऊँची श्वेत पाषाणकी तथा पीतलकी १ फुट ३ इंच ऊंची खड्गासन प्रतिमाएं हैं। इनका प्रतिष्ठा-काल संवत् २००६ है। बायीं ओर २ फोट ४ इंच ऊँची मुनिसुव्रतनाथ और शान्तिनाथकी पाषाण-मूर्तियाँ हैं। इनके अतिरिक्त वेदीपर १० धातू-प्रतिमाएं हैं।
_गर्भगृहके बाहर सभा-मण्डपमें दायीं और बायीं ओर भगवान् आदिनाथकी १ फुट ११ इंच ऊंची संवत् १९३२ में प्रतिष्ठित श्वेत वर्ण की पद्मासन मूर्तियाँ हैं। यहां एक शिलालेख भी है, जिसके अनुसार संवत् १९३२ मगसिर वदी १ सोमवारको भट्ठारक कनककीर्ति द्वारा प्रतिष्ठा की गयी।
द्वारके निकट बायीं ओर एक भित्ति-वेदीमें ३ फोट २ इंच ऊँचे शिलाफलकमें भगवान आदिनाथकी अर्ध-पद्मासन प्रतिमा है। स्कन्धों तक जटाएं फैली हुई हैं। वक्षपर श्रीवत्स लांछन है। दायीं ओर पाश्वनाथकी श्वेत प्रतिमा है। प्रतिमा ११ फणावलीयुक्त है। भित्ति-वेदीके शिखरके ऊपर सीमन्धर स्वामीकी १ फुट ६ इंच ऊंची संवत् २००६ में प्रतिष्ठित गेहुँआ वर्णकी प्रतिमा है। इसके एक पाश्वमें आचार्य शान्तिसागरजीकी मूर्ति है तथा दूसरे पार्श्वमें उनके चरण-चिह्न हैं । मन्दिरकी छतपर एक छतरी है जिसमें दो चरण रखे हैं। छतपर जानेके लिए मन्दिरके पृष्ठ भागमें सीढ़ी है।
२. शान्तिनाथ मन्दिर-मुख्य मन्दिरके द्वारके सामने प्रांगणमें प्रवेश-द्वार बना हुआ है। इसके दायीं ओर पूर्व की तरफ शान्तिनाथ मन्दिर है। इसमें ऊपर चढ़कर जाना पड़ता है। भगवान् शान्तिनाथकी २ फीट ३ इंच ऊंची श्याम वर्णकी पद्मासन प्रतिमा है। इसका प्रतिष्ठाकाल संवत् १९३२ है । इसके अतिरिक्त ४ श्वेतवणं और २ श्यामवर्ण पाषाणकी तथा पद्मावती एवं सरस्वतीकी धातु-मूर्तियां हैं।
प्रवेश-द्वारके बायीं ओर (पश्चिमको ओर ) एक कमरे में आचार्य शान्तिसागरजीके चरण हैं। पूज्य आचार्य महाराजने १४ अगस्त सन् १९५५ को कुलभूषण-देशभूषण मुनिराजोंके चरणोंके समक्ष इंगिनीमरण नामक संलेखनाका नियम लिया था। सल्लेखनाके दिनों आचार्यश्री इसी कमरे में बैठते थे और १८ सितम्बर १९५५ को इसी कमरे में उनका समाधिमरण हुआ था। इसलिए यह कमरा भी एक पावन तीर्थस्थल बन गया है।
____ आचार्य शान्तिसागरजीका समाधिमरण-आचार्य शान्तिसागरजी इस युगकी महान् आध्यात्मिक विभूति थे। वे धर्मके मूर्तिमान रूप थे। उनका व्यक्तित्व असाधारण था। उनकी प्रत्येक गतिविधि और क्रियामें शास्त्रानुमोदित धर्मके दर्शन होते थे। वे आत्महितमें सदा सजग रहते थे। सन् १९५१ में आचार्यश्रीगजपंथा क्षेत्रपर पधारे। उन्होंने विचार करके वहींपर द्वादश