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________________ महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ २३९ तब सीता सहित दोनों भाइयोंने निश्चय किया कि भय उत्पन्न करनेवाला भयानक शब्द क्यों होता है, इसका हम पता लगावेंगे और आज वंशगिरिपर ही चलकर रहेंगे। यह विचार करके वे लोग वंशगिरिपर पहुंचे। वहां उन्होंने दो मुनियोंको ध्यानारूढ़ देखा। तीनोंने उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार किया। वे विनयसहित मुनियोंके निकट बैठ गये। तभी कई भवोंका शत्रु अग्निकुमार जातिका एक देव आकर घोर गर्जना करने लगा और मुनियोंपर घोर उपसर्ग करने लगा। यह देखकर रामचन्द्र और लक्ष्मणने अपने-अपने धनुषोंका टंकार किया। असुर इन्हें बलभद्र और नारायण जान उनके धनुष टंकारसे भयभीत होकर भाग गया। तभी दोनों मुनियोंके चारों घातिया कर्मोंका नाश हो गया और लोकालोकका ज्ञायक केवलज्ञान प्राप्त हो गया। चारों निकायके देव आये और केवली भगवान की पूजा को। ___ लक्ष्मण और सीताके साथ राम यहाँ काफी समय तक ठहरे। उन्होंने यहां अनेक जिनालयोंका निर्माण कराया, जिनमें सुदृढ़ स्तम्भ और गवाक्ष थे, तोरण सहित द्वार थे, जो कोट, परिखा और ध्वजाओंसे सुशोभित थे, जिनमें भक्तजनोंके भक्तिगान एवं मृदंग, वीणा, बांसुरी, झालर, झांझ, मंजीरा, शंख, भेरी आदि वादित्रोंकी ध्वनि सदा मखरित रहती थी। रामने राजा और प्रजाका संकट दूर किया था, अतः इस अनुग्रहके उपलक्ष्यमें इस पर्वतको सब लोग रामगिरि कहने लगे। वंशगिरिको पहचान अनेक आचार्योंने कुलभूषण-देशभूषणको निर्वाण भूमिको कुन्थुगिरि, कुन्थलनगर, कुन्थलगिरि, वंशगिरि, वंशस्थल, बांसिनयर बताया है। इस स्थानका मूल नाम सम्भवतः कुन्थुगिरि था। सर्वप्रथम प्राकृत निर्वाण-काण्डमें यह नाम उपलब्ध होता है। इसके बाद इस मसे मिलते-जुलते कून्थलगिरिका नामोल्लेख १६वीं शताब्दीके विद्वान् मेघराजने किया है। इनके अतिरिक्त कुन्थुगिरि या कुन्थलगिरिके नामका उल्लेख अन्य किसी प्रसिद्ध आचार्यने नहीं किया। संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें तो कुलभूषण-देशभूषण मुनियोंको निर्वाण-भूमिका कोई नाम ही नहीं दिया। विमलसूरि और रविष्णने रामकथाके प्रसंगमें दोनों मुनियोंका जीवन-परिचय और उनपर हुए उपसर्गके निवारणका वर्णन किया है। उपसर्ग दूर होनेपर वंशगिरिपर ही उनकी केवलज्ञान-प्राप्तिका भी उल्लेख किया गया है। किन्तु दोनों ग्रन्थों में उनके निर्वाण और निर्वाणस्थानका कोई उल्लेख नहीं किया गया है। बल्कि केवलज्ञान-प्राप्तिके बाद नगर, ग्राम, पर्वतादिपर विहार करते हुए उनके उपदेश देनेका कथन किया है। यहाँ उल्लेखनीय बात यह है कि वर्तमानमें जो कुन्थलगिरि क्षेत्र है, उसे उत्तरकालीन किसी लेखकने रामगिरि नहीं लिखा । इसी प्रकार नागपुरके पास रामटेक, जिसे रामगिरि माना जाता है, उसे किसीने कुन्थलगिरि नहीं लिखा। हरिवंश पुराण ( सर्ग ४६, श्लोक १७-२०) में भी पाण्डवोंके सन्दर्भ में राम द्वारा निर्मित जिनालयोंके कारण रामगिरि नाम पड़नेका उल्लेख मिलता है। उसमें बताया है कि वहाँ कुछ दिन विश्राम करके पाण्डव कोशल देश पहुँचे । वहां राम द्वारा सेवित रामगिरिपर पहुँचे । उस गिरिपर रामने चन्द्र और सूर्यके समान देदीप्यमान सैकड़ों जिनालय बनवाये थे। वहां विभिन्न देशोंसे अनेक भव्य जन आते थे । पाण्डवोंने उन मन्दिरोंमें प्रतिमाओंकी पूजा की। इस विवरणमें दो बातें उल्लेखनीय हैं-(१) रामगिरि कोशल देशमें था। यहाँ कोशलसे
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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