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________________ २३८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ कुलभूषण-देशभूषणका पौराणिक इतिहास सिद्धार्थनगरके नरेश क्षेमंकर थे। उनकी रानीका नाम विमला था। उसके दो पुत्र थे जिनका नाम देशभूषण और कुलभूषण था। जब वे दोनों कुछ बड़े हुए तो पिताने उन्हें सागरघोष नामक एक विद्वान्के पास पढ़नेके लिए भेज दिया। दोनों भाई शास्त्र और शस्त्र दोनों प्रकारको विद्याओंका अध्ययन करते रहे । वे सभी विद्याओं और कलाओंमें निपुणता प्राप्त कर सकें, इसलिए अध्ययन-कालमें वे परिवार और राज्यसे दूर रहे। इस काल में वे अपने माता-पिता तथा परिवारके किसी भी सदस्यसे नहीं मिले। उनसे मिलने भी कोई नहीं गया। विद्याध्ययनमें कोई व्यवधान न हो, इसलिए यह ऐच्छिक प्रतिबन्ध लगा दिया गया। कुछ वर्षों में ही वे सम्पूर्ण कलाओं और विद्याओंमें पारंगत हो गये। तब गुरु उन्हें अपने साथ लेकर राज्य सभा में आये और राजासे निवेदन किया-"देव ! दोनों बालक सर्वकलासम्पन्न और सम्पूर्ण विद्याओं में निष्णात हो गये हैं। दोनों बालक अत्यन्त सुशील, विनयी और बुद्धिमान् हैं।" राजा दोनों पुत्रोंको देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। अनेक वर्षोंके पश्चात् पुत्रोंको देखकर स्नेहविह्वल होकर उसने उन्हें अंकमें भर लिया, बड़ी देर तक उनके सिरको सूंघता रहा और हृदयसे उन्हें आशीर्वाद दिया। इसके पश्चात् उसने राजगुरुका समुचित सम्मान करके उन्हें विदा किया। दोनों भाई आदर-सत्कारसे निवृत्त होकर नगर-भ्रमणके लिए चल दिये । वे नगरकी शोभा देखते हुए लौट रहे थे। अकस्मात् उनकी दृष्टि राजप्रासादके गवाक्षकी ओर उठ गयी। गवाक्षमें रूप-लावण्यसे सुशोभित एक षोडशी बैठी हुई थी । उसे देखकर यह भ्रम होता था-क्या गवाक्षमें पूर्णचन्द्र उदित हुआ है या कामपत्नी रति ही अवतरित हुई है ? यह देवदुर्लभ रूपराशि क्या किसी मानुषीमें सम्भव है ? उसे देखकर दोनोंके मनमें एक ही-से विचार उदित हुए-"इस सुन्दरीको मैं अपनी पत्नी बनाऊंगा, इसके साथ विवाह करके स्वर्गीय आनन्दका अनुभव करूंगा। यदि मेरे सहोदरने इस कार्यमें बाधा डाली या प्रतिद्वन्द्विता की तो मैं उसका भी वध करूँगा।" दोनों उस कन्याको देखकर भावलोकमें विचरण कर रहे थे। तभी वन्दीजनोंके विरुद उनके कानोंमें पड़े-"महारानी विमला और महाराज क्षेमंकरकी जय हो, जिनके दोनों पुत्र देवोंके समान हैं तथा झरोखेमें बैठी हुई जिनकी कन्या कमलोत्सवा साक्षात् सरस्वती है।" वन्दीजनोंके ये शब्द सुनते ही उन्हें बड़ी वेदना और आत्मग्लानि हुई। दोनों ही विचार करने लगे-"धिक्कार है हमें जो हमारे मनमें अपनी सहोदरा भगिनीके प्रति कुत्सित विचार उपजे।" उन्हें अपने ऊपर बड़ी ग्लानि उपजी। मनका यह विकार ही वस्तुतः संसार है। इस संसारसे उन्हें विराग हो गया। माताने, पिताने, बहनने और सभीने उन्हें समझाया, किन्तु वे अपने विचारपर दृढ़ रहे और अन्तमें सबकी अनुमति प्राप्त करके उन्होंने मुनि-व्रत अंगीकार कर लिया। दोनों मुनियोंने घोर तप किया। उन्हें आकाशगामिनी आदि ऋद्धियाँ प्राप्त हो गयीं। एक बार वे वंशगिरि पर्वतपर जाकर ध्यानारूढ़ हो गये। तभी वनवास-कालमें राम, लक्ष्मण और सीता सहित भ्रमण करते हुए वंशस्थल नगरमें आये। उन्होंने देखा कि नगरसे राजा और प्रजा निकलकर भाग रही है । रामचन्द्रने लोगोंसे इसका कारण पूछा तो वे कहने लगे -"तीन दिनसे सन्ध्याके समय निकटके पर्वतपर भयानक शब्द होता है, जिससे सम्पूर्ण पर्वत और पृथ्वी तक हिल उठती है। सन्ध्या होते ही भयके कारण सब नगरवासी नगर छोड़कर चले जाते हैं और प्रातःकाल होनेपर पुनः वापस आ जाते हैं।"
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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