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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
इस मन्दिरके पार्श्वमें रत्नत्रय मन्दिर है । वेदीपर एक शिलाफलक में ३ खड्गासन श्याम मूर्तियाँ हैं। मध्य मूर्ति ३ फीट ६ इंचकी है तथा पार्श्ववर्ती मूर्तियाँ ३ फोट ४ इंचकी हैं । इनके आगे पार्श्वनाथकी श्वेत आधुनिक प्रतिमा है ।
गर्भगृह के बाहर ७ प्रतिमाएँ पाषाणकी हैं तथा ५ फीट ६ इंच ऊँचा शिखराकार एक सहस्रकूट प्रतिमा है ।
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ये दोनों ही मन्दिर समकालीन हैं । कहते हैं, इसी मन्दिर में षट्खण्डागमका अन्तिम भाग लिखकर ग्रन्थको पूर्ण किया गया था ।
इसी परिसर में जैनोंका त्रिकूट चैत्यालय था । उसपर हिन्दुओंने अधिकार कर लिया है। और अब वह रंक भैरव कहलाता है। पहले इसमें पार्श्वनाथ भगवान्की मूर्ति विराजमान थी ।
बाहर प्रांगण में ४ बड़े और ४ छोटे दीपाधार स्तम्भ बने हुए हैं तथा सदर ( पालकी रखने की वेदी) बना हुआ है । इनपर भी हिन्दुओंने अधिकार कर लिया है ।
गंगावेश - यह मन्दिर श्री पार्श्वनाथ मानस्तम्भ दिगम्बर जैन मन्दिर कहलाता है । मन्दिरके द्वार पर ३० फीट ऊंचा एक मानस्तम्भ है। इसके निकट दो चौकोर पाषाणोंपर कनड़ी भाषा में लिखे हुए दो शिलालेख दीवार के सहारे रखे हुए हैं । दायीं ओरका शिलालेख ३ फीट ६ इंच ऊँचा और २ फीट ५ इंच चौड़ा है। इसमें कुल ३१ पंक्तियाँ हैं । बायीं ओरका पाषाण ३ फीट १ इंच ऊंचा और इतना ही चोड़ा है। इसमें ४४ पंक्तियां हैं। इन शिलालेखों में 'शक संवत् १०६५ दुन्दुभी संवत्सर माघ पूर्णिमा सोमवार चन्द्रग्रहण एवं दूसरे में शक संवत् १०७३ प्रमोद संवत्सर भाद्रपद पौर्णिमा शुक्रवार चन्द्रग्रहण' यह काल निर्देश किया गया है ।
इनमें से एक शिलालेख के ऊपरी भागमें अर्हन्त प्रतिमा उत्कीर्ण है। दायीं ओर एक गाय और बछड़ा बने हुए हैं । बायीं ओर तलवार । उसके वाम पाश्वमें सूर्य और दक्षिण पाश्वमें चन्द्रमा बने हुए हैं । इस शिलालेख में शिलाहार नरेश विजयादित्यने रूपनारायण जैन मन्दिरके आचार्य मूलसंघ देशीयगण पुस्तकगच्छके प्रमुख माघनन्दि सिद्धान्तदेवके शिष्य माणिक्यनन्दि पण्डितका पाद प्रक्षालन करके वासुदेव क्षुल्लकपुर ( कोल्हापुर ) को पार्श्वनाथ तीर्थंकरकी अष्टविध पूजा, मन्दिर के जीर्णोद्धार और मठमें रहनेवाले मुनियोंके अन्न सन्तर्पणके उद्देश्यसे जमीन दानकी थी, उसका वर्णन है । इस शिलालेखका मूलपाठ इस प्रकार है । शिलालेखकी भाषा संस्कृत है और लिपि कनड़ी है
१. श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलांछनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ||१||
२. स्वस्ति श्रीज्जयश्चाभ्युदयश्च । जयत्यमलनानाथं प्रतिपत्तिप्रदर्शक ( कम् ) । अत् ३. पुरुदेवस्य शासनं मोहशासनं (नम् ) ||२|| स्वस्ति श्रीशिलाहार महाक्षत्रियान्वये वित्र
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४. स्ताशेषरिपुप्रततिज्जतिगो नाम नरेन्द्रोभूत् । तस्य सूनवो गोंकलो गोवलः
५. कीर्तिराजश्चन्द्रादित्यश्चेति चत्वारः । तत्र गोंकलभूत लपतेर्मारसिंहो नाम नन्दनः । तस्य तनुजाः गूवलो
६. गंगदेवः बल्लालदेवः भोजदेव: गण्डरादित्य दे (व) श्चेति पंच । तेषु धामिकधम्मंजस्य वैरिका
श्रीमद्गण्डरादित्यदेवस्य प्रियतनयः
७. न्तावैधव्यदीक्षागुरोः सकलदर्शन चक्षुषः
श्रीशिला