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महाराष्ट्र के दिगम्बर जैन तीर्थं
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है | यह प्रतिमा खण्डित है। इसकी चरण-चौकीपर 'शके १०७८ नलगाम संवत्सरे वैशाख सुदी १० बुधवार' अंकित है । मण्डप मन्दिर में रखी हुई मूर्तियोंमें से कई मूर्तियाँ भी लगभग इसी कालकी प्रतीत होती हैं ।
तलहटीके मन्दिरोंसे दक्षिणको ओर लगभग ३ फर्लांग दूर प्राचीन दिगम्बर जैन मन्दिर है जिसमें भगवान् आदिनाथ, नेमिनाथ और महावीरकी अत्यन्त मनोज्ञ प्रतिमाएँ विराजमान हैं । एक मुनि गुफा है। इसमें आचार्य शान्तिसागरजी, आचार्यं समन्तभद्रजी आदि मुनियोंने रहकर आत्म-साधना और तपस्या की है ।
इस क्षेत्रकी व्यवस्था के लिए निकटवर्ती गांव कुम्भोजमें दिगम्बर जैनोंका रजिस्टर्ड तोर्थक्षेत्र ट्रस्ट स्थापित है जिसका नाम 'बाहुबली क्षेत्र दिगम्बर जैन ट्रस्ट' है ।
गुरुकुल
पर्वतकी तलहटी में श्री बाहुबली ब्रह्मचर्याश्रम ( जैन गुरुकुल ) चल रहा है, जो कारंजा ब्रह्मचर्याश्रम के बाद स्थापित हुआ है । शिक्षाके क्षेत्रमें गुरुकुल पद्धति भारतकी एक देन है । प्राचीन भारत में माता-पिता अपने बालकों को गुरुकुल में भेज देते थे। गुरुकुल नदी तटपर, एकान्त वनस्थलीमें, प्रशान्त वातावरण में, नागरिक कोलाहल से दूर होते थे । वहाँ अध्यापनके लिए उच्च चारित्रवान्, निस्पृह गुरुजन रहते थे । वहाँके छात्र विनय और अनुशासनका पालन करते हुए ज्ञानकी विविध शाखाओं का अध्ययन करते थे । वहाँ रहनेवाले सभी छात्रोंके निवास, भोजन, शिक्षा, वस्त्र आदि की व्यवस्था समान भावसे संस्थाकी ओरसे की जाती थी । गुरुकुलोंके समान ऋषिकुल भी होते थे । वहाँ ऋषियोंके सान्निध्य में विद्याध्ययनकी व्यवस्था होती थी। ऋषियोंके आश्रमोंमें रहनेवाले छात्र विद्यार्जनके साथ स्वाभिमान, स्वावलम्बन और पुरुषार्थंका पाठ भी यहीं पढ़ते थे । उन्हें आश्रमोंकी गायें दुहनेसे लेकर खेती करने, लकड़ी काटने, समिधा लाने आदि सभी कार्यं करने होते थे । कुछ उपाध्याय अपनी निजी शालाएँ चलाते थे । ऐसी शालाओंमें पाँच सौ तक छात्र विद्याध्ययन करते थे । इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति ( मुनि और गणधर बनने से पूर्वं ) आदिने ऐसी ही शालाएँ चला रखी थीं । इन सभी प्रकारके गुरुकुलोंमें शिक्षाको सम्पूर्ण व्यवस्था निःशुल्क होती थी । राजा और सम्पन्न लोग बिना याचनाके स्वयं ही अत्यन्त भक्ति और विनयसे सभी सुविधाएं जुटा देते थे। वैसे इन गुरुकुलोंमें आवश्यकताएँ भी क्या थीं ! भोजनकी सम्पूर्णं सामग्री खेती से मिल जाती थी, घी और दूधकी पूर्ति गायोंसे हो जाती थी । शिक्षा मौखिक होती थी अथवा ताड़पत्रका प्रयोग होता था । कक्षाएं वृक्षोंके नीचे लगती थीं । आवासकी व्यवस्था झोंपड़ियों में की जाती थी। छात्र वहाँकी शान्ति, एकान्त और प्रकृतिके साहचर्यमें विद्यादेवीकी सतत आराधना करते थे । देवी प्रसन्न होकर अपना सम्पूर्ण कोष उनपर लुटाती थी ।
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इस प्रकारकी गुरुकुल प्रणाली मुस्लिम आक्रमणोंसे पूर्व तक किसी न किसी प्रकार चलती रही । मुस्लिम शासन काल में गुरुकुलोंके अस्तित्व के सम्बन्ध में इतिहास ग्रन्थोंमें कोई उल्लेख नहीं मिलता । किन्तु उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में आकर आधुनिक परिवेश के अनुरूप कुछ परिवर्तन करके, गुरुकुल प्रणालीका पुनरुज्जीवन हुआ । इस क्षेत्रमें सबसे अग्रणी हम महात्मा मुंशीराम ( स्वामी श्रद्धानन्द ) को मानते हैं । उन्होंने स्वामी दयानन्दके आदर्शोंको मूर्त रूप देने के लिए कांगड़ी में गुरुकुलकी स्थापना की। इसके बाद अनेक गुरुकुल और ब्रह्मचर्याश्रम स्थापित किये गये । गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुरने बोलपुरमें विश्वभारती ( शान्ति निकेतन ) की स्थापना प्राचीन गुरुकुलोंके आदर्शपर की। जैन समाजमें भी महात्मा भगवानदीन आदि कुछ उ