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________________ २२८ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र-दर्शन सड़कके किनारे बायीं ओर एक विशाल प्रदेश-द्वार बना हआ है। इसमें प्रवेश करते ही लगता है, एक पवित्र वातावरणमें पहुँच गये हैं। सड़क द्वारा क्षेत्रकी ओर बढ़ते ही दायीं ओर धर्मशाला नं. १ और २, यान्त्रिक विद्यालय और अतिथि-निवास एवं विद्यापीठके गुरुजनोंके निवास मिलते हैं। बायीं ओर द्वारके निकट प्रतीक्षागृह, छात्रावास, विद्यालय भवन और क्रीड़ा क्षेत्र हैं । वृक्षों, पुष्पवल्लरियों और हरित दूर्वांचलोंने बाह्य परिवेशमें प्राचीन विद्याश्रमोंकी-सी शुचिता और सौन्दर्य भर दिया है। दर्शक इस सौन्दर्यमें भावाभिभूत होकर जिनालयोंके मुख्य द्वारमें प्रवेश करता है तो सामने ऊंचाईपर सत्य और शिवके मूर्तिमान रूप और सौन्दर्यके निधान महामुनि बाहुबलिको मूर्तिको निहारता है। निहारते ही वह भावलोकमें पहुंच जाता है। ये हो हैं कामजेता कामदेव महामनस्वी मुनि बाहुबली, जिन्होंने भरत क्षेत्रके षट्खण्ड पृथ्वीको जीतकर भी आत्मविजयका कठोर व्रत लेकर उसमें भी सफलता प्राप्त की। वे ही जगज्जयो वीतराग महामुनि मानो जगत्के सन्तप्त सन्त्रस्त प्राणियोंको अभय दान देकर खड़े-खड़े उनपर अनन्त करुणाकी वर्षा कर रहे हैं। ५० सीढ़ियां चढ़कर मार्बलका चबूतरा मिलता है। वहाँ बाहुबली भगवान्की २८ फीट ऊँची श्वेत मकराना पाषाणकी भव्य खड्गासन मूर्ति खड़ी है। इसकी प्रतिष्ठा सन् १९६३ माघ शुक्ला १३ बुधवारको सम्पन्न हुई थी। चबूतरेके कोनोंपर एक भक्त पुरुष और स्त्री हाथ जोड़े हुए बैठे हैं । सीढ़ियोंके प्रारम्भमें दोनों ओर पाषाण गज बने हुए हैं। सीढ़ियोंपर दोनों पार्यों में बिजलीके स्तम्भ हैं । रात्रिमें विद्युत् प्रकाशमें इस मूर्तिको रूपच्छटा अद्भुत हो जाती है। ___ इस मूर्तिके पृष्ठ भागमें ६ वेदियाँ बनी हुई हैं, जिनमें मांगीतुंगी, मुक्तागिरि, गजपंथा, तारंगा, सोनागिरि और पावागिरि सिद्धक्षेत्रोंकी पाषाण-सीमेण्टसे बनी प्रतिकृतियाँ हैं। इस चबूतरेके निकट दूसरे चबूतरेपर लगभग १५ फीट ऊंचा कैलास पर्वत बनाया गया है, जिसके ऊपर ७२ मन्दिराकृतियाँ बनी हुई हैं। उसके पाश्वमें दायीं ओर गिरनार पर्वतकी रचना की गयी है। बाहुबलीके दूसरे पार्श्वमें सम्मेदशिखरको भव्य रचना है। इन तीनों रचनाओंकी प्रतिष्ठा सन १९७० में की गयी। इस मूर्तिके चबूतरेसे उतरकर बायीं ओर एक छतरीमें श्रुतस्कन्ध और छतरीके मध्यमें एक ताम्रपत्रपर श्रुतदेवताको नमस्कारपरक मंगलाचरण अंकित है तथा सामने दीवारपर श्रुतस्कन्धके द्वादशांगके नाम और उनकी पद संख्याका चित्रण है। * इस चबूतरेसे उतरकर एक मन्दिरमें, जो पावापुरीकी आकृतिका है, भगवान् महावीरकी हलके गुलाबी वर्णकी पद्मासन प्रतिमा है। प्रतिष्ठा काल सन् १९७० है। पावापुरी मन्दिरसे उतरकर एक मन्दिरमें तीन खड्गासन प्रतिमाएं विराजमान हैं। मध्य प्रतिमा २ फीट ८ इंच ऊँची हलके गुलाबी वर्णको भगवान् शान्तिनाथकी है। बायीं ओर २ फीट ७ इंच की कुन्थुनाथकी श्वेत और दायीं ओर अरनाथकी इसी आकारकी श्वेत वर्णवाली प्रतिमाएं हैं। इनकी प्रतिष्ठा २६-२-१९७० को हुई है। यह रत्नत्रय मन्दिर कहलाता है। बाहर परिक्रमा-पथ बना हुआ है। इसके ऊपरी भागमें वेदीपर १ फुट ४ इंच अवगाहनावाली भगवान् महावीरकी श्वेत पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। इसमें परिक्रमा-पथ है । इसके ऊपर लाल छतरीमें आचार्य शान्तिसागरजीके चरण बने हुए हैं। __ यहाँसे उतरकर प्रवचन मण्डप मिलता है। यह हॉल ३७४७६ फीट है। इससे दायीं ओर
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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