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________________ महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ २२३ कुण्डल (कलिकुण्ड पार्श्वनाथ ) मार्ग और अवस्थिति ___ श्री कलिकुण्ड पाश्वनाथ दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र कुण्डल महाराष्ट्र प्रान्तके सांगली जिलेमें तालुका तासगांवमें अवस्थित है। यह पूना-सतारा-मिरज रेलमार्गपर किर्लोस्करबाड़ीसे ३.५ कि. मी. है। यह क्षेत्र सड़क मार्गसे सांगलीसे ५१ कि. मी., कराड़से २९ कि. मी. तथा तासगांवसे भी २९ कि. मी. है। सभी स्थानोंसे यहाँके लिए बस-सेवा चालू है। किर्लोस्करबाड़ीसे क्षेत्र तकके लिए तांगे भी मिलते हैं। अतिशय क्षेत्र प्राचीन कालमें इस नगरका नाम कौण्डिन्यपुर था। बादमें यह कुण्डल हो गया । कहते हैं, इस नगरका सत्येश्वर नामक एक राजा था, जो बहुत बीमार था। बहुत उपवार करनेपर भी उसके स्वास्थ्यमें सुधार नहीं हुआ। वह मरणासन्न दशा तक पहुँच गया। उसकी रानीका नाम पद्मश्री था। उसने पत्थर जमा करके पाश्वनाथकी मूर्ति तैयार करायी और बड़े भक्तिभावसे इसकी पूजा करने लगी। धीरे-धीरे राजाके स्वास्थ्यमें सुधार होने लगा और वह बिलकुल स्वस्थ हो गया। इससे राजा और प्रजा सभी इस चमत्कारी मूर्तिके भक्त बन गये । यह तभीसे अतिशयसम्पन्न मूर्ति मानी जाने लगी। इस मूर्तिके अभिषेकके लिए जिस गाँवसे दही आता था, उस गांवका नाम दह्यारी पड़ गया; जिस गांवसे दूध आता था, उसका दुधारी; जिस गांवसे कुम्भ ( नारियल ) आता था, उसका नाम कुम्भार और जिस गांवसे फल आते थे, उस गांवका नाम पलस पड़ गया। ये गांव अब भी विद्यमान हैं और क्षेत्रके निकट ही हैं। इतिहास प्राचीनकालमें कौण्डिन्यपुर ( वर्तमान कुण्डल ) करहाटक ( वर्तमान कराड़ ) राज्यके अन्तर्गत था। उस समय करहाटकमें शस्त्र-विद्या और शास्त्र-विद्याके शिक्षणके लिए विख्यात विश्वविद्यालय था। यहाँ उस समय प्रकाण्ड विद्वानोंका वास था। विद्वानोंको राज्याश्रय प्राप्त था । भारतके बड़े-बड़े विद्वान् यहाँ आकर स्थानीय शास्त्रार्थ किया करते थे। उनकी जय-पराजयका निर्णय राज्यसभामें ही होता था। आचार्य समन्तभद्र भारतीय विद्वानोंकी अपनी दिग्विजय यात्रामें यहाँ भी पधारे थे और यहाँके विद्वानोंको वादमें जीता था। ___ कुछ वर्ष पूर्व कुण्डल नगरके दसलाढ़ नामक एक व्यक्तिको अपने घरमें खुदाई करनेपर तीन ताम्र शासन पत्र प्राप्त हुए थे। इनका प्रकाशन दैनिक अकालके ३-४-१९५५ के अंकमें हुआ था। इनमें से प्रथम ताम्र-पत्र राष्ट्रकूट नरेश गोविन्द तृतीय द्वारा दिये दानसे सम्बन्धित है । द्वितीय ताम्रपत्रमें पुलकेशिन विजयादित्य द्वारा दिये दान शासनका उल्लेख है। तृतीय ताम्रपत्र शक संवत् १२१० का है। इसमें वनवासी नगरके कदम्बवंशी मयूरवर्मन द्वारा दिये गये दानका उल्लेख मिलता है। इस दान पत्रसे कई महत्त्वपूर्ण तथ्योंपर प्रकाश पड़ता है। इसमें प्रारम्भिक ५ श्लोकोंमें मंगलाचरण करनेके पश्चात् बताया है-एक दिन कदम्बवंशी राजा कृतवर्मा दर्पणमें अपना मुख देख रहे थे। सिरपर एक श्वेत केशको देखकर उनके मनमें १. श्रवणबेलगोलाका शिलालेख नं. ५४ ।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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