________________
महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ
२११ मिलते हैं । ब्रह्म जिनदास ईडर शाखाके प्रसिद्ध भट्टारक सकलकीतिके शिष्य थे । ब्रह्म जिनदासके शिष्य ब्रह्म शान्तिदास भी बड़े विद्वान् थे। वे भी मुल्हेड़में रहे थे। उनके समय सूरत गादीके भट्टारक लक्ष्मीचन्द और मुनि दयालचन्द्र मुल्हेड़में वास कर रहे थे, इस प्रकारके प्रमाण प्राप्त होते हैं। इन्हींके कालमें वेटावदके निवासी वेणीदासबी दसा हूमड़ उच्च कोटिके विद्वान् थे। आपने भी संस्कृत और प्राकृतमें कुछ ग्रन्थोंकी रचना की थी। आपकी प्रेरणासे वेटावद निवासी संघवीने वि.सं. १८२२ में श्री मांगीतंगीके लिए संघ निकालकर मल्हेडनगरमें जिन-बिम्ब-प्रतिष्ठा करायी थी। अमलनेरके निकट मांडल ग्रामके जिनालयमें चौबीसीकी चरण-चौकीपर जो लेख है, उससे भी मुल्हेड़ नगरमें हुई बिम्ब-प्रतिष्ठाकी सूचना मिलती है। वह मूर्ति-लेख इस प्रकार है
"श्री सं. १८२२ वर्षे द्वितीय चैत्र शुक्ला ७ बुधवासरे श्री मूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुन्दकुन्दाचार्यान्वये भट्टारकश्री सकलकीतिः तदनुक्रमेण भट्टारकश्री विजयकीर्तिस्तत्पट्टे भट्टारकनेमिचन्द्र तत्पट्टे भट्टारकश्री चन्द्रकीति गुरु उपदेशात् श्री बगलान देशे मुल्हेड़ हुंबड़ नगरे ज्ञातौ लघशाखायां गंगेश्वर गोत्रे सा श्री साल वेलजी तत् भार्या उताइ स्तेना सूत राखेवदास भ्राता लघु यग्मं एते प्रतिष्ठा करान्ति शुभं चतुर्विंशति तीर्थंकराणां नित्यं प्रणमति श्रीरस्तु शुभं भवतु कल्याणमस्तु।"
इससे प्रतीत होता है कि दो शताब्दी पूर्व मुल्हेड़ नगर, जो हुंबड़ जातिका नगर कहलाता था, सम्पन्न था और उस काल तक वहाँ बिम्ब प्रतिष्ठा होती रही थी। किन्तु किन्हीं प्राकृतिक अथवा राजनीतिक कारणोंसे मुल्हेड़ नगर शोभाविहीन हो गया, जनविहीन हो गया और वहाँके हुंबड़ नगर छोड़कर खानदेशके विभिन्न ग्रामोंमें जा बसे। यहां तक कि इस नगरमें एक भी जैन नहीं रहा । तब यहांके जिनालयकी कुछ प्रतिमाएं कुसुम्बाके जिनालयमें भेज दी गयीं। निश्चय ही, मुल्हेड़ नगरका यह उत्थान और पतन संसारके परिवर्तनशील स्वभावका बोध कराता है। तलहटीमें मन्दिरोंका निर्माण
___ जब मुल्हेड़में जैनोंका अभाव हो गया, तब ईडरकी गादीके भट्टारक सुरेन्द्रकीर्तिजीको यात्रियोंकी सुख-सुविधाकी चिन्ता हुई । अतः आपने वि. सं. १८७० में पं. रिखवदासजीको भेजकर पर्वतकी तलहटीमें एक धर्मशाला बनवायी और लकड़ीका एक सिंहासन बनवाकर एक जिनप्रतिमा दर्शन और पूजनके लिए वहां विराजमान करा दी।
संवत् १९०४-५ में कारंजाके भट्टारक देवेन्द्रकीर्तिजी और उनके शिष्य मण्डलाचार्य ब्र. रतनसागरका यहां आगमन हुआ। उनके सदुपदेशसे शोलापुर निवासी उत्तरेश्वर गोत्री गान्धी देवकरणने एक विशाल शिखरबन्द जिनालय निर्माण कराकर वि. सं. १९१५ माघ शुक्ला ५ को भगवान् पाश्वनाथकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भट्टारकजी द्वारा करायी।
तत्पश्चात् उक्त भट्टारकजीके उपदेशसे वार्शी निवासी सेठ तुलजाराम बड़जातेने एक दूसरा जिनालय निर्माण कराया, जिसकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा भट्टारकजी द्वारा वि. सं. १९२७ को माघ शु. ५ के शुभ मुहूर्तमें करायी। ___इसके पश्चात् तो वहाँ धर्मशाला, कुआं, सभा-मण्डप, मानस्तम्भ, पहाड़पर जानेके लिए सीढ़ियों आदिका निर्माण हुआ। क्षेत्र-दर्शन
तलहटीके मन्दिरोंके पृष्ठ भागमें लगभग एक किलोमीटर कच्चे मार्गसे चलकर सीढ़ियोंका सिलसिला शुरू हो जाता है। पहाड़पर मांगी और तुंगी दोनों शिखरोंपर जानेके लिए २९६०