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________________ २१० भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ विश्वास हुआ कि मेरा प्यारा भाई सचमुच ही मर गया है। तब उन्होंने तुंगोगिरिके ऊपर अपने प्रिय भ्राताका दाह संस्कार किया। जिस जगह उनकी अन्त्येष्टि की गयी, वह जगह आज भी दहन-कुण्डके नामसे प्रसिद्ध है। अपने भ्राताके वियोगसे बलरामको भी संसारसे वैराग्य हो गया। उन्होंने अपने सामने अपने स्वर्ग तुल्य नगर और बन्धु-बान्धवोंको जलते हुए देखा था, किन्तु उन्हें वैराग्य नहीं आया। क्योंकि उनका प्राणोपम अनुज जीवित था। वे उनके साथ जीवन बिता सकते थे। किन्तु जब वह अनुज भी उन्हें एकाकी निराश्रय छोड़कर चला गया तो उन्हें जीवनमें और इस विशाल संसारमें कोई सार नहीं दिखाई दिया। अतः वे मुनि-दीक्षा लेकर घोर तप करने लगे। वे तप करते हुए भी अपने प्रिय अनुजका मोह दूर नहीं कर सके। इसलिए वे अष्ट कर्मोंको नष्ट कर मुक्त नहीं हो सके, बल्कि तुंगीगिरिसे पंचम स्वर्गके ऋद्धिधारी देव बने। आजसे लगभग २३०० वर्ष पूर्व उत्तर भारतके भयंकर दुभिक्षके समय अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु अपने विशाल संघके साथ इस क्षेत्रपर पधारे थे, ऐसा कहा जाता है। श्री भद्रबाहुकी स्मृतिस्वरूप एक ध्यानस्थ मूर्ति यहाँपर मांगीगिरिको एक गुफामें विराजमान है। मांगीतुंगीसे लगभग तीन मील दूर पश्चिमकी ओर डोंगरिया देव नामक एक गुफा है। भील, कोंकण आदि जातियोंमें इस गुफाका बड़ा महत्त्व है। यह गुफा भूमितलसे १००० फुटके लगभग ऊपर है । इसके चारों ओर सघन वन है। इस गुफामें छोटे-छोटे गोल दरवाजे गोल कुण्डीकी तरह अकृत्रिम बने हुए हैं। तीसरे दरवाजेके आगे पानी भरा रहता है। इस गफाके सम्बन्धमें अनेक अनुश्रुतियां प्रचलित हैं। कहते हैं, इसके भीतर चैत्यालय है। गुफाके भीतर एक नाला बहता है, ऐसा भी सुननेमें आया। वास्तवमें गुफाके अन्दर क्या है, यह आज भी रहस्य बना हुआ है। कुछ लोग गुफाका रहस्य-भेद करने गुफामें जाते रहते हैं, कई बार मुनि जन भी दिव्य प्रतिमाओंके दर्शनोंकी लालसासे कुछ भक्तजनोंके साथ गये, किन्तु गफाके गर्भ में स्थित नालेसे आगे कोई नहीं जा सका, ऐसी चर्चा है। यह भी कहने-सुननेमें आया है कि गुफाके भीतर नालेके पास एक बड़ी दीवार है । लेकिन ये सब बातें अभी सन्देहास्पद ही बनी हुई हैं । प्राचीन मुल्हेड़ नगर क्षेत्रके निकट प्राचीन कालमें एक बहुत विशाल और सम्पन्न नगर था, जिसे मुल्हेड़ कहा जाता था। आज तो विगतवैभव यह नगर साधारण कस्बा रह गया है। यहाँ पर्वतके ऊपर प्राचीन दुर्गके अवशेष बिखरे पड़े हैं । इन अवशेषोंके देखनेसे ज्ञात होता है कि यह दुर्ग कभी बहुत विशाल रक्षा-दुर्ग रहा होगा । इस दुर्ग में अब भी सरोवर, जलकुण्ड और भवनोंके अवशेष दिखाई पड़ते हैं। इस नगरमें केवल जैनोंकी संख्या ही हजारों थी। यहां जैनपुरा नामक एक मुहल्ला था, जिसमें जैनोंके ८०० घर थे। अबसे दो सौ वर्ष पूर्व यहाँ तीन सौ घर तो दसा हमड़ोंके थे। यहां अनेक जिनालय और धर्मशालाएं बनी हुई थीं। मांगीतुंगीकी यात्रा करनेवाले यात्री इन्हीं धर्मशालाओंमें विश्राम करते थे। वहांसे जंगलों-दुर्गों में होते हुए तीन मील पैदल या गाड़ियोंमें चलकर तलहटीमें पहुंचते थे। तब मार्ग ऊबड़-खाबड़ था। पहाड़पर जानेके लिए भी सीढ़ियोंका निर्माण नहीं हुआ था। इसलिए अनेक यात्री तो तलहटीमें ही पूजन आदि करके सन्तुष्ट हो लेते थे। ___ इस नगरमें कई सुप्रसिद्ध जैन साहित्यकार भी हुए हैं। ईडर गादीके भट्टारकोंकी ओरसे ब्रह्मचारी ब्रह्म जिनदास यहाँ रहते थे । संस्कृत और प्राकृतमें विरचित आपके कई ग्रन्थ आज भी
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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