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महाराष्ट्रके दिगम्बर जैन तीर्थ
२०९ एक ही पर्वतके दो शिखर हैं और दोनों ही एक दूसरेसे मिले हुए हैं। इन शिखरोंके पृष्ठ भागमें मंगन और तुंगन नामक दो गाँव बसे हुए हैं।
इस क्षेत्रकी वन्दनाके माहात्म्यका वर्णन भट्टारक ज्ञानसागरने 'सवंतीथं वन्दना' नामक अपनी रचनामें दो छप्पयोंमें बड़े भावपूर्ण शब्दोंमें किया है, जो इस प्रकार है
"तुंगी पर्वत सार सिद्ध क्षेत्र सुखदायक । श्री बलिभद्रकुमार थया जिहां सुरवरनायक । दर्शनथी आनंद पूजत बहु सुख पावें । सुर नर किन्नर सकल मुनिवर मिलि गुण गावें ॥ मांगीतुंगी तीर्थकी महिमा जगमें विस्तरी। ब्रह्म ज्ञानसागर वदति जिहां बलिभद्रे तपसा करी ॥१२॥ हलधर श्री बलिभद्र नृप वसुदेव सुनन्दन । कृष्णरायको बंधु सकल शास्त्र कृत खंडन । द्वारावति निज बंधु विरह थकी व्रत लीनो। दृढतर राख्यो चित्त ध्यान अधिक परिकीनो। बालक फांस्यो देखि करि तुंगीगिरि अणसण कियो ।
ब्रह्म ज्ञानसागर वदति पंचम स्वर्ग सुरपद लियो ॥१२॥" भट्टारक गुणकीर्तिने 'तुंगी गीत' नामक अपनी मराठी रचनामें तुंगीगिरिकी यात्राको जन्म-जरा और मरणकी परम्पराका नाश करनेवाली बताया है । सम्बद्ध अंश इस प्रकार है
"क्रम खंडण खेत्र बुझो रे लोइया अहीनिसी करो तम्हे जात्र ।
जन्म-जरा-मरन सर्व क्रम तुटे अवर न जानुं तम्ह बात ॥४॥" यद्यपि उत्तरपुराणमें रामचन्द्रका निर्वाण सम्मेद शिखरसे बताया है, किन्तु अन्य सभी जैन पुराणों और कथा-ग्रन्थोंमें तुंगीगिरिपर ही रामका निर्वाण बताया है। जैन समाजमें यही मान्यता प्रचलित है। कुछ महत्त्वपूर्ण पौराणिक घटनाएँ
राम-निर्वाणके समान यहां एक और महत्त्वपूर्ण घटना घटित हुई थी, जिसके कारण भी इस स्थानको ख्याति हजारों वर्षोंसे चली आ रही है। महाभारत कथाके आकर्षण केन्द्र नारायण कृष्ण अपने ज्येष्ठ भ्राता बलरामके साथ द्वारकापुरी भस्म हो जानेपर कौशाम्बीके वनमें पहुंचे। कृष्णको बड़ी जोरकी प्यास लगी। भैया बलभद्र जलकी तलाशमें चल दिये। श्रान्त और क्लान्त कृष्णको नींद आ गयी। तभी उधरसे घूमता हुआ उन्हींका सौतेला भाई जरत्कुमार आ निकला और कृष्णके हिलते हुए वस्त्रको हरिण समझकर धोखेसे उसने बाण चला दिया। बाण आकर कृष्णके पैरमें लगा । भवितव्य दुनिवार होता है। उसी साधारण बाणसे नारायणकी मृत्यु हो गयी। जन अपने प्राणोपम भाईके लिए बलराम जल लेकर लौटे तो उन्होंने आकर यह अकल्प्य घटना देखी। देखते ही वे मोहाविष्ट हो गये। वे अपने प्रिय भाईकी मत देहको कन्धेपर लादे फिरते रहे। पाण्डवोंकी माता कुन्तीने उन्हें समझाया, पाण्डवोंने उन्हें समझाया किन्तु वे यह माननेको तैयार नहीं थे, वे यह सुननेको तैयार नहीं थे कि नारायण कृष्णका निधन हो चुका है। इस प्रकार छह माह बीत गये, तब एक दिन अपने सारथी भाई, जो मरकर देव हो गया था, के समझानेपर उन्हें
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