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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ
रूप दे दिया गया है। सामने वेदीपर कृष्णवर्णकी ४ फुट ऊँची और २ फुट १० इंच चौड़ी पार्श्वनाथ भगवान्की तीन प्रतिमाएँ विराजमान हैं । ये तीनों एक ही शिलाफलकमें उत्कीर्ण हैं । इस फलककी रचना इस प्रकार है- चमरवाहक, पार्श्वनाथ, चमरवाहक, ललितासनमें धरणेन्द्र, चमरवाहक, पार्श्वनाथ, चमरवाहक, ललितासन में पद्मावती, चमरवाहक, पार्श्वनाथ, फिर चमरवाहक ।
बायीं दीवारके सहारे मध्यमें ३ फोट २ इंच ऊँचे फलकमें पद्मासन तीर्थंकर प्रतिमा है । परिकर छत्र, दुन्दुभिवादक, गज सूंड़में जल- कलश लिये हुए। दोनों ओर देवयुगल पुष्पमाल लिये हुए । अधोभागमें चमरवाहक और उनसे नीचे यक्ष-यक्षी ।
इस मूर्ति के ऊपर २ फुट ४ इंच ऊँचे शिलाफलक में आदिनाथ भगवान्को मूर्ति है । उसके दोनों पावोंमें पद्मासन प्रतिमाएँ हैं । भगवान् के सिरपर छत्र हैं । उनके ऊपर चमरवाहक हैं । छत्रके दोनों ओर मालाधारी देव हैं । भगवान्के पादपीठपर वृषभ लांछन है ।
ओर मार्बल के एक फलकमें तीन सिद्ध मूर्तियां खड्गासन मुद्रामें हैं । दायीं ओर माल एक फलक में मध्य में खड्गासन साधु-मूर्ति है तथा दोनों पावों में उपाध्याय और आचार्य परमेष्ठीको पद्मासन मूर्तियाँ हैं । साधु परमेष्ठी के हाथों में माला और पिच्छी है । आचार्य परमेष्ठीको साधु वन्दना कर रहे हैं और उपाध्याय परमेष्ठीके नीचे शास्त्र है तथा श्रावक श्रोता बैठे हैं । ओर की दीवार- वेदी में पार्श्वनाथ भगवान् की दो श्वेत मूर्तियाँ हैं । दायीं ओरकी दीवार - वेदी में श्वेत वर्ण महावीर, कत्थई वर्णं चन्द्रप्रभ और कृष्णवर्ण तीर्थंकर मूर्तियाँ विराजमान हैं । दायीं ओर वेदीमें भगवान् महावीरको कत्थई वर्णकी १ फुट ४ इंच ऊँची पद्मासन मूर्ति है । बायीं ओर सप्तर्षियोंके चरण-चिह्न बने हुए हैं तथा दायीं ओर सात बलभद्रोंके चरण-चिह्न विराजमान हैं ।
बाहर बरामदे में द्वारके बायीं और दायीं ओर ५ फुट ९ इंच अवगाहनावाली तीर्थंकर प्रतिमाएँ हैं । बायीं ओर बरामदेके सिरेपर वेदीमें श्याम वर्णं प्राचीन पद्मासन प्रतिमा है । उसके दोनों पात्रों में पार्श्वनाथ भगवान् की कत्थई वर्णकी पद्मासन और कायोत्सर्गासन प्रतिमाएं हैं तथा आगे दो श्वेत पद्मासन प्रतिमाएँ हैं । इसी प्रकार दायीं ओर बरामदेके छोरपर २ फुट ४ इंच ऊँची कृष्ण पाषाणकी पद्मासन प्रतिमा है ।
पुरातत्त्व
इस क्षेत्रपर तथा इसके निकटस्थ १४-१५ मीलके प्रदेशमें जैन पुरातत्त्व सामग्री विपुल परिमाण में उपलब्ध होती है । 'शान्तिनाथ पुराण' में लिखा है कि ईसा पूर्व ९०० में मैसूर के चामराज नरेशने यहाँकी गुफाओं में मूर्तियोंकी प्राण-प्रतिष्ठा करायी थी । तबसे ही इन गुफाओं को चामर लेनी ( चामर गुफा ) कहने लगे हैं । महाराष्ट्र प्रान्त में प्राइमरी कक्षाकी पुस्तकों में चाम्भार लेनीके नामसे यहाँके जैन मन्दिरों और गुफाओंका वर्णन आता है ।
शान्तिनाथ पुराणके उपर्युक्त उल्लेखमें कितना तथ्यांश है, यह कहना कठिन है । जबतक अन्य प्रामाणिक स्रोतोंसे इसकी पुष्टि नहीं हो जाती, तबतक इसे स्वीकार करने में संकोच होना स्वाभाविक है ।
चाम्भार लेनीके नामके आधारपर एक बहुत रोचक दन्तकथा भी प्रचलित हो गयी है । यहाँसे १० मील दूरस्थ पाण्डवलयणसे किसी साधुने जूता फेंका था, जो यहाँकी गुफामें आकर गिरा था । इसीलिए उसे चाम्भार (चमार) लेनी कहा जाता है ।