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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ इस उल्लेखसे यह स्पष्ट हो जाता है कि गजपन्थ शैल नासिक्य नगरके बाहर था। किन्तु श्लोकमें गजपन्थ शब्द न देकर कविने पर्वतका नाम गजध्वज दिया है। गजध्वज और गजपन्थ एक ही पर्वतके नाम हैं और परस्पर पर्यायवाची हैं। इस बातका समर्थन बोधप्रामृत गाथा २७ की श्रुतसागर कृत टीकासे भी होता है। उसमें समस्त तीर्थों के नाम इस प्रकार दिये हैं
"ऊर्जयन्त-शत्रुजय-लाटदेश पावागिरि-आभीरदेशतुंगीगिरि-नासिक्यनगरसमीपवर्ति गजध्वजगजपंथ-सिद्धकूट-तारापुर-कैलासाष्टापद-चम्पापुरी-पावापुर-वाराणसीनगरक्षेत्र-हस्तिनागपत्तन-चल मेंद्र गिरि-वैभारगिरि-रूप्यगिरि-सुवर्णगिरि-रत्नगिरि-शौर्यपुर - चूलाचल-नर्मदातट - द्रोणीगिरि-कुन्थुगिरि-कोटिकशिलागिरि-जम्बक वन-चलनानदीतट-तीर्थंकरपंचकल्याणस्थानानि ।"
उपर्युक्त उल्लेखमें 'नासिक्यनगर समीपवर्ती गजध्वज गजपन्थ' नाम देकर सारी शंकाओंका समाधान कर दिया है। इसका अर्थ यह है कि गजपन्थ नासिक नगरके समीप था और उसका अपरनाम 'गजध्वज' भी था।
वर्तमानमें भी गजपन्थ क्षेत्र नासिक शहरसे केवल ६ कि. मी. दर है। म्हसरूल गांवमें धर्मशाला है। यह पर्वतकी तलहटीमें है। यहांसे पर्वत अर्थात् निर्वाण-स्थान लगभग २ कि. मी. पड़ता है । ऊपर जानेके लिए पाषाणकी ४३५ सीढ़ियां बनी हुई हैं। नासिक रोड स्टेशनसे नासिक होकर म्हसरूल गाँव १६ कि. मी. पड़ता है। नासिकसे म्हसरूलके लिए मोटर, तांगे बराबर मिलते हैं।
क्षेत्र दर्शन
म्हसरूल गांवके उत्तरकी तरफ जैन धर्मशाला बनी हुई है। इसके चारों ओर परकोटा है। कम्पाउण्डके भीतर ही धर्मशाला, स्नानगृह तथा एक दो-मंजिला भवन है। परकोटाके दक्षिणकी ओर एक कम्पाउण्ड है। इसमें दो-मंजिला हवेली बनी हुई है। चौकके मध्यमें क्षेत्र कार्यालय है। दो छोटे बंगले भी बने हुए हैं-एक ईशानकोणकी ओर, दूसरा बड़े फाटकके पास । ये सब क्षेत्रकी ही सम्पत्ति हैं। धर्मशालाके अन्तमार्गमें एक भव्य जिनालय है। इसमें मूलनायक प्रतिमा महावीर भगवान्की है । इसकी अवगाहना २ फुट १ इंच है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् १९४५ में हुई थी। यह श्वेत वर्णकी है और पद्मासन मुद्रामें है। इसके बायीं ओर २ फुट १ इंच ऊंची आदिनाथकी श्वेतवर्णकी पद्मासन प्रतिमा है। समवसरणमें इनके अतिरिक्त धातुको ३१ मूर्तियां हैं, जिनमें ७ बलभद्रोंकी हैं और १ गजकुमारकी है । शिखरपर ७ मूर्तियाँ हैं । मन्दिरके आगे मानस्तम्भ है जो वीर सं. २४६० में ब्र. कंकुबाईकी ओरसे निर्मित हुआ था। मानस्तम्भकी शीर्षवेदी पर महावीर स्वामीकी ४ प्रतिमाएँ हैं। मन्दिरके निकट एक कुआं है। सामने क्षेत्रके खेतमें एक बावड़ी है।
यहाँ आज जो धर्मशाला, मन्दिर, सरस्वती भवन आदि दिखाई पड़ते हैं, लगभग डेढ़ सौ वर्ष पहले कुछ भी नहीं था। एक बार नागौरके भट्टारक क्षेमेन्द्रकीर्ति तीर्थयात्रा करते हुए यहाँ पधारे और क्षेत्रकी गौरव-गरिमासे प्रभावित होकर उन्होंने इसे अधिक प्रकाशमें लानेका विचार किया । अतः उन्हींकी प्रेरणासे प्रेरित होकर शोलापुर निवासी सेठ नानचन्द फतहचन्दजीने म्हसरूलमें जमीन खरीदकर यात्रियोंकी सुविधाके लिए धर्मशाला और मन्दिरका निर्माण कराया। मन्दिरकी प्रतिष्ठा भट्टारक क्षेमेन्द्रकीतिजीके नेतृत्वमें वि. सं. १९४३ में बड़े धूमधामके साथ सम्पन्न हुई थी।
पर्वतकी तलहटीमें एक सुन्दर वाटिका है। इसीके पासमें भट्टारक क्षेमेन्द्रकीर्तिकी समाधि बनी हुई है तथा एक जिनालय है। मन्दिरके गर्भगृहमें २ फीट ऊंचा एक चैत्य है, जिसमें चारों