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गजपन्था और अंजनेरी
सिद्धक्षेत्र
__ श्री गजपन्था सिद्धक्षेत्र या निर्वाणक्षेत्र है। यहाँसे सात बलभद्र और आठ कोटि यादव मुक्त हुए थे। तत्सम्बन्धी उल्लेख अनेक ग्रन्थोंमें उपलब्ध होते हैं। प्राकृत निर्वाण-काण्डमें इस सम्बन्धमें निम्नलिखित गाथा मिलती है
सत्तेव य बलभद्दा जदुवरिंदाण अट्ठकोडीओ।
गजपंथे गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसिं ॥६॥ अर्थात सात बलभद्र और आठ कोटि यादव राजा गजपन्थ गिरिके शिखरसे मक्त हए ।
कुछ उत्तरकालीन भाषा-कवियोंने भी गजपन्थको बलभद्रों और यादव नरेशोंको निर्वाणभूमि होनेके कारण इसे निर्वाण-क्षेत्र माना है। इन लेखकोंमें उदयकीर्ति, गुणकीर्ति, मेघराज, चिमणा पण्डित, दिलसुख और ज्ञानसागर मुख्य हैं। संस्कृत निर्वाण-भक्तिमें 'दण्डात्मके गजपथे पृथुसारयष्टौ' कहकर गजपन्थका केवल नामोल्लेख ही किया है। संस्कृत निर्वाण-भक्ति आचार्य पूज्यपाद विरचित है, जैसा कि प्रभाचन्द्राचार्यने क्रियाकलापमें लिखा है"संस्कृताः सर्वा भक्तयः पादपूज्यस्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः॥"
-दशभक्त्यादि संग्रह टीका, पृ. ६१ पूज्यपाद स्वामीका समय ईसाकी पांचवीं शताब्दी सुनिश्चित है। इसी प्रकार प्राकृत निर्वाण-भक्तियोंके रचयिता कुन्दकुन्दाचार्य माने गये हैं और उनका समय ईसाकी प्रथम शताब्दी माना जाता है। इन दोनों ही आचार्योंने गजपन्थको निर्वाणक्षेत्र स्वीकार किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि ईसाकी प्रथम शताब्दीमें भी गजपन्थ निर्माण-क्षेत्र माना जाता था।
निर्वाणकाण्डमें इस पर्वतपर-से जिन सात बलभद्रोंकी मुक्ति-प्राप्तिका उल्लेख है, उनके नाम उत्तरपुराण आदि पुराणोंके आधारपर इस प्रकार हैं-(१) विजय, (२) अचल, (३) सुधर्म, (४) सुप्रभ, (५) नन्दी, (६) नन्दीमित्र और (७) सुदर्शन । गजपन्थ क्षेत्रको अवस्थिति
कुछ विद्वान् वर्तमान गजपन्थ क्षेत्रको वास्तविक न मानकर आधुनिक खोज मानते हैं। उनका तर्क है कि इस क्षेत्रपर न तो कोई प्राचीन मन्दिर है और न पुरातत्त्व ही। किन्तु प्राचीन साहित्यमें कुछ प्रसंग या स्थल ऐसे भी प्राप्त होते हैं, जिनसे इस बातका निर्णय हो जाता है कि यह क्षेत्र कहाँपर अवस्थित था । असग कवि कृत 'शान्तिनाथ-चरित'में एक प्रसंग है-अमिततेज और श्रीविजयने अपनी विशाल वाहिनीको लेकर अशनिवेग विद्याधरका पीछा किया। तब वह अपनी रक्षाका कोई उपाय न देखकर भाग खड़ा हुआ और नासिक्य नगरके बाहर गजध्वज पर्वतपर जा पहुंचा। उल्लेख इस प्रकार है
"अपश्यन्नापरं किंचिद्रक्षोपायमथात्मनः । शेलं गजध्वज प्रापन्नासिक्यनगराद् बहिः॥"