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________________ गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ १९९ अतिशय क्षेत्र यह एक अतिशय क्षेत्र है। यहां एक प्राचीन दिगम्बर जैन मन्दिर है। मन्दिरके भोयरेमें भगवान् शीतलनाथकी श्वेत पाषाणकी ३ फुट २ इंच अवगाहनावाली सातिशय प्रतिमा विराजमान है। भगवान् शीतलनाथकी मूर्तिके अतिशयके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती प्रचलित है-वि. सं. १७४७ में किसी श्रावकको स्वप्न हुआ, 'अंकलेश्वरके रामकुण्डमें जैन मूर्तियाँ हैं, उन्हें तुम निकालो।' उसने अपने स्वप्नकी चर्चा अन्य श्रावकोंसे की। फलतः सब भाई मिलकर रामकुण्ड पहुँचे । उन्होंने कुण्डमें तलाश की तो दो तीर्थंकर प्रतिमाएं निकलीं-एक पार्श्वनाथकी और दूसरी शीतलनाथकी। पाश्वनाथको प्रतिमाको गाड़ीमें लेकर चले। गाड़ी रामकुण्डसे चलकर अंकलेश्वर नगरमें पहुंची और वहीं रुक गयी। जब प्रयत्न करनेपर भी वह नहीं चली तो प्रतिमाको वहीं विराजमान कर दिया। इसी प्रकार शीतलनाथकी मूर्तिको दूसरी बैलगाड़ीमें रखकर चले। बैलगाड़ी अंकलेश्वरसे ८ कि. मी. सजोद ग्राममें जाकर रुक गयी। वह वहांसे किसी प्रकार आगे नहीं बढ़ी। तब शीतलनाथ भगवान्की मूर्तिको वहीं भोयरे में विराजमान कर दिया। यह प्रतिमा पद्मासन मुद्रामें है । पाषाण छींटेदार है। प्रतिमा अत्यन्त मनोज्ञ है। छींटोंने इसकी शोभाको बिगाड़ा नहीं, बल्कि संवारा ही है। भारतकी सुन्दर जैन प्रतिमाओंमें इसकी गणना की जा सकती है। अश्रद्धालु व्यक्ति भी इसके समक्ष आकर श्रद्धासे नतमस्तक हुए बिना नहीं रह सकता। इसके कर्ण स्कन्ध-चुम्बी हैं। ग्रीवापर तीन वलय पड़े हुए हैं । छातीपर श्रीवत्स उभरा हुआ नहीं है, मात्र चिह्न अंकित है। नासिका लम्बी, होठ पतले और चक्षु अर्धोन्मीलित हैं। भौंहें धनुषाकार हैं तथा सिरके कुन्तल वलयाकार अति सुन्दर बने हुए हैं। मूतिके पीठासनपर वृक्षका अस्पष्ट लांछन बना हुआ है। लेख नहीं है। कुछ विद्वान् इसको २००० वर्ष प्राचीन मानते हैं, किन्तु हमारी विनम्र मान्यताके अनुसार इसकी रचना शैली और इसके शिल्प सौष्ठवको देखते हुए यह प्रतिमा ७-८वीं शताब्दी अथवा उससे कुछ पूर्व गुप्तकालकी होनी चाहिए । अंकलेश्वरकी चिन्तामणि पाश्वनाथ प्रतिमा भी इसके समकालीन ही लगती है। मूलतः वह प्रतिमा पालिशदार नहीं रही होगी, पालिश बादमें की गयी होगी। उसकी पालिशके कारण उसका रचना-काल निर्धारित करने में कठिनाई प्रतीत होती है, किन्तु शीतलनाथ स्वामीकी प्रतिमाका काल निश्चित होनेपर उसके कालका भी सही निर्धारण किया जा सकता है। धर्मशाला नगरमें वर्तमानमें किसी जैन बन्धुका निवास नहीं है, केवल एक वृद्धा महिला अपने पतिगृहकी ममताके कारण रहती है। यहां धर्मशाला भी नहीं है। प्रायः यात्री अंकलेश्वरकी जैनधर्मशालामें अपना सामान रखकर बसों द्वारा यहाँ आते हैं और दर्शन-पूजा करके अंकलेश्वर लौट जाते हैं। मन्दिरके कुएंका जल भी खारा है, किन्तु वह वृद्धा बहन यात्रियोंकी मिष्ठजल आदिसे प्रेमपूर्वक सेवा करती है । मन्दिरका वातावरण अत्यन्त शान्त है। मेला गांवमें माघ कृष्णा १४ को महादेवका मेला होता है। इसी अवसरपर मन्दिरपर ध्वजारोहण किया जाता है। मन्दिर में दर्शनोंके लिए जैनोंके अतिरिक्त हिन्दू और भील आदि भी आते हैं।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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