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________________ १९६ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ अंकुलेसरे वरिसा कालो कओ।" अर्थात् उसी दिन वहांसे भेजे गये उन दोनोंने 'गुरुके वचन अलंघनीय होते हैं' ऐसा विचारकर आते हुए अंकलेश्वरमें वर्षाकाल बिताया। ____ अंकलेश्वरमें वर्षावास करते हुए उन दोनों मुनियोंने श्रुतके प्रचारकी योजना बनायी होगी। उसी योजनाके अनुसार वर्षावासके पश्चात् पुष्पदन्त तो वनवास देशको चले गये और भूतबलि द्रमिल देशको। तदनन्तर पुष्पदन्तने जिनपालितको दीक्षा देकर सत्प्ररूपणाके बीस सत्र (अधिक बनाये और उन्हें जिनपालितको पढ़ाया। पढ़ाकर उन्हें भूतबलिके पास भेजा। आचार्य भूतबलिने द्रव्य प्रमाणानुगमसे लेकर शेष पाँच खण्डोंकी रचना की। फिर षट्खण्डागमकी रचनाको पुस्तकारूढ़ करके ज्येष्ठ शुक्ला ५ को चतुर्विधसंघके साथ श्रुत-पूजा की, जिससे श्रुत पंचमी पर्वका प्रचलन हो गया। फिर भूतबलिने उस षट्खण्डागमको जिनपालितके हाथ पुष्पदन्तके पास भेजा। पुष्पदन्त उसे देखकर अत्यन्त आनन्दित हुए और उन्होंने भी चातुर्वर्ण संघ सहित सिद्धान्तकी पूजा की। ____इस प्रकार अंकलेश्वर उन महिमान्वित पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्योंकी चरण-रजसे पवित्र हुआ था। उपाध्याय धर्मकीतिने संवत् १६५७ में चिन्तामणि पाश्र्वनाथ मन्दिरमें यशोधर-चरितकी रचना की थी। यह स्थान काष्ठासंघ और मूलसंघके भट्टारकोंका प्रभाव क्षेत्र था। इनके भट्टारक समय-समयपर आकर कुछ समयके लिए यहाँ ठहरा करते थे। यहांके मन्दिरोंमें उनको गद्दियाँ बनी हुई हैं। क्षेत्रदर्शन अंकलेश्वर एक अच्छा नगर है। नगरमें ४ दिगम्बर जैन मन्दिर हैं-(१) चिन्तामणि पार्श्वनाथ मन्दिर, (२) नेमिनाथ मन्दिर, (३) आदिनाथ मन्दिर, और (४) महावीर मन्दिर । इनमें पाश्वनाथ मन्दिरके मूलनायक चिन्तामणि पार्श्वनाथकी प्रतिमा अतिशयसम्पन्न है। १-चिन्तामणि पाश्वनाथ मन्दिर-मन्दिरके भोयरे में चिन्तामणि पार्श्वनाथकी कत्थई की ४ फुट १० इंच ऊंची पद्मासन प्रतिमा विराजमान है। सिरके ऊपर सप्तफणावलि है। प्रतिमाका मूलवणं हलका गुलाबो है। किन्तु प्रतिमाके ऊपर पालिश की हुई है। ___ इस मूर्तिका भी एक इतिहास है। अंकलेश्वरसे लगभग एक मील दूर रासकुण्ड नामक एक कुण्ड है । इस कुण्डमें तीन मूर्तियां मिली थी-पार्श्वनाथकी, शीतलनाथकी और नन्दीकी। । अलग-अलग गाड़ियों में रखकर अंकलेश्वर नगर की ओर ले जाने लगे। जब पाश्वनाथवाली गाड़ी अंकलेश्वर नगरके मध्य वर्तमान जैन मन्दिरके स्थानपर पहुंची तो गाड़ी यहाँ आकर रुक गयी। बहत कुछ प्रयत्न करनेपर भी गाड़ी आगे नहीं बढ़ी, तब पार्श्वनाथ प्रतिमाको यहीं उतारकर किसी प्राचीन मन्दिरमें विराजमान कर दिया। इसी प्रकार शीतलनाथवालो गाड़ी अंकलेश्वर से ८ कि. मी. दूर सजोद जाकर अड़ गयी। तब वहींपर शीतलनाथका मन्दिर बनवाया गया। दोनों ही मूर्तियाँ भोयरे में हैं। नन्दीवाली गाड़ी उसके वर्तमान स्थानपर रुकी थी। यह आश्चयंकी बात है कि तीनों ही मूर्तियां चमत्कारी हैं। लोग अपनी कामनाएं लेकर वहां जाते हैं। कामनाएं पूर्ण होनेके कारण ही पाश्वनाथ मूर्तिको चिन्तामणि पाश्वनाथ कहा जाने लगा है और अब यह मूर्ति इसी नामसे विख्यात है। इस मूर्तिकी पीठिकाके ऊपर कोई लेख नहीं है। किन्तु रचना शैलीसे यह मूर्ति ७-८वीं शताब्दी अथवा इससे कुछ पूर्वको प्रतीत होती है। बायीं ओर १ फुट २ इंच ऊंची पाश्र्वनाथकी श्वेतवर्णकी पद्मासन प्रतिमा है जो
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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