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गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ
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धर्मशाला
यहाँ धर्मशाला बनी हुई है। इसमें पांच कमरे हैं। विद्युत् और जलकी सुविधा है। स्थान अत्यन्त रमणीक है। यह पर्यटन और धर्मसाधन दोनों ही दृष्टियोंसे चित्ताकर्षक है। इसीलिए सूरतके जैनबन्धु समय-समयपर विशेषतः अवकाशके दिनोंमें यहां आते रहते हैं। मेला
यहां वर्षमें कई बार मेले होते हैं जैसे चैत्र शुक्ला पूर्णिमा, वैशाख शुक्ला पूर्णिमा और कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा। भट्टारक विद्यानन्दिके समाधिमरण-दिवस मार्गशीर्ष कृष्णा १० को भी मेला होता है।
अंकलेश्वर
मार्ग
अंकलेश्वर पश्चिमी रेलवेके सरत तथा बडौदाके मध्य स्टेशन है। स्टेशनसे अंकलेश्वर ग्राम १ कि. मी. है। यह गुजरातके भड़ोंच जिलेमें स्थित है। अतिशय क्षेत्र
यह एक अतिशय क्षेत्र है। ग्राममें चार दिगम्बर जैन मन्दिर हैं। यहाँ भोयरेमें पार्श्वनाथ स्वामीकी एक प्राचीन अतिशयसम्पन्न मूर्ति है। यह चिन्तामणि पाश्र्वनाथके नामसे विख्यात है। लोगोंकी धारणा है कि इस मूर्तिके दर्शन करनेसे समस्त चिन्ताएँ दूर हो जाती हैं और शुभ मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं । जनतामें इस मूर्तिके प्रति फैले हुए इस विश्वासके कारण ही जैन और जैनेतर लोग मनौती मनानेके लिए भारी संख्यामें यहां आते रहते हैं। इसके कारण ही यह स्थान तीर्थक्षेत्रके रूपमें प्रसिद्ध हो गया है।
___ अंकलेश्वरका उल्लेख आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिके प्रसंगमें धवला आदि ग्रन्थोंमें भी पाया जाता है। षट्खण्डागम-धवला टीका भाग १,५.६७-७१ में जिस कथानक अथवा इतिहासके प्रसंगमें अंकलेश्वरका वर्णन आया है, वह कथानक अथवा इतिहास इस प्रकार है
__ सौराष्ट्र देशके गिरिनगर नामक नगरकी चन्द्रगुफामें रहनेवाले अष्टांग महानिमित्तके पारगामी, प्रवचनवत्सल धरसेनाचार्यने आगे अंग श्रुतका विच्छेद हो जानेकी आशंकासे महिमानगरीमें एकत्रित हुए दक्षिणापथवासी आचार्योंके पास एक लेख ( पत्र ) भेजा। लेखमें लिखे गये धरसेनाचार्यके वचनोंको अच्छी प्रकार समझकर उन आचार्योंने शास्त्रके अर्थके ग्रहण और धारण करनेमें समर्थ, विनयसे विभूषित, उत्तम कुल और उत्तम जातिमें उत्पन्न और समस्त कलाओंमें पारंगत ऐसे दो साधुओंको आन्ध्रदेशमें बहनेवाली वेणा नदीके तटसे भेजा। उनके पहुंचनेपर धरसेनाचार्यने उनकी परीक्षा की और सन्तुष्ट होनेपर उन्होंने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वारमें उन्हें पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। इस प्रकार धरसेन भट्टारकसे पढ़ते हुए उन्होंने आषाढ़ मासके शुक्ल पक्षको एकादशीके पूर्वाह्नकालमें ग्रन्थ समाप्त किया।
धरसेनाचार्यने ग्रन्थ समाप्त होते ही उन्हें उसी दिन वहाँसे विदा कर दिया। इसी सन्दर्भमें धवलाकारने लिखा है-"पुणो तद्दिवसे चेव पेसिदा संतो गुरुवयणमलंघणिज्जं इदि चितिऊणादेहि