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________________ १९४ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ स्थापना की थी, उसी ग्राममें शान्तिनाथ मन्दिरका निर्माण कराया था। इनके शिष्य नेमिसेनने भट्टपुरा जातिकी स्थापना की । भट्टारक विश्वसेनने आराधनासार टीका लिखी। विद्याभूषणने द्वादशानुप्रेक्षाकी रचना की। श्री भूषणका श्वेताम्बरोंके साथ वाद हुआ, जिसमें श्वेताम्बर पराजित हो गये और उन्हें देशत्याग करना पड़ा। आपकी रचनाओंमें शान्तिनाथ पुराण, प्रतिबोध चिन्तामणि और द्वादशांग पूजा उपलब्ध हैं। इन्होंने भट्टारक वादिचन्द्रको भी वादमें पराजित किया था। ये वादिचन्द्र मूलसंघके भट्टारक थे। श्रीभूषणके शिष्य चन्द्रकीर्तिने पार्श्वनाथ पुराण और पाण्डव पुराणकी रचना की। उनको बनायी हुई पूजाओंमें पाश्वनाथ पूजा, नन्दीश्वर पूजा, ज्येष्ठ जिनवर पूजा, षोडशकारण पूजा, सरस्वती पूजा, जिन चउबीसी और गुरुपूजा मिलती हैं। इन्होंने दक्षिण यात्राके समय कावेरी तटपर नरसिंहपट्टनमें कृष्णभट्टको वादमें पराजित किया। इनके बाद राजकीर्ति भट्टारक हुए । आपने वाराणसीमें वादमें जय प्राप्त की। भट्टारक सुरेन्द्रकीर्तिने केशरिया क्षेत्रपर दो चैत्यालयोंकी प्रतिष्ठा की। काष्ठासंघके इन भट्टारकोंकी गद्दी सोजित्रामें थी। सूरतमें बलात्कारगणकी गद्दी थी। काष्ठासंघके भट्टारकोंकी सूरतमें शाखापीठ थी। यहाँके मूर्तिलेखोंमें काष्ठासंघके नन्दीतटगच्छ और लाउवागड़ गच्छका उल्लेख मिलता है। मूर्तियोंके प्रतिष्ठाकारक व्यक्तियोंकी जातियोंके नाम भी मिलते हैं, जैसेनरसिंहपुरा, बघेरवाल, हूमड़, मेवाड़, सिंहपुरा, रायकवाल । इस प्रकार इन भट्टारकोंकी धार्मिक, सामाजिक और साहित्यिक गति-विधियोंका अध्ययन करनेपर हमें लगता है कि तत्कालीन समाजपर इन भट्टारकोंका बड़ा प्रभाव था। वे सम्पूर्ण धार्मिक और सामाजिक चेतना और गतिविधियोंके केन्द्र थे, नियामक थे और संचालक थे। यदि ये भट्टारक उस कालमें हुए होते तो हमारी धार्मिक और सामाजिक स्थिति उस समय क्या होती, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। भट्टारक संस्थामें कुछ त्रुटियां भी रही होंगी, जिनके कारण यह संस्था शनैः-शनैः अपना प्रभाव खोती गयी। किन्तु भूतकालमें इस संस्थाने जो उपकार किया है, उसे हमें कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए। विद्यानन्दि-क्षेत्र सूरतसे ३ कि. मी. दूर कतारगांवमें विद्यानन्दि-क्षेत्र है । यहाँ ८२ भट्टारकों और मुनियोंके चरण-चिह्न हैं। चरण-चिह्न अलग-अलग वेदियोंमें विराजमान हैं। ये वेदियों तीन पंक्तियों में बनी हुई हैं । ये सभी वेदियां श्वेत संगमरमरकी हैं। चरण-चिह्नोंके मध्यमें आचार्य शान्तिसागरजी महाराजकी १ फुट १ इंच ऊंची और भट्टारक विद्यानन्दिकी १ फुट ३ इंच ऊँची मूर्तियां विराजमान हैं । विद्यानन्दिकी मूर्तिको पृष्ठ-पंक्तिमें उनके १ फुट ३ इंच लम्बे चरण बने हुए हैं। भट्टारक विद्यानन्दि अपने समयके बड़े प्रभावशाली और चमत्कारी पुरुष थे। वे मन्त्र-तन्त्रमें निष्णात तपस्वी साधु थे। उनके चमत्कारोंकी अनेक कथाएँ समाजमें प्रचलित हैं। एक प्रशस्तिके अनुसार राजाधिराज वज्रांग, गंग, जयसिंह, व्याघ्र आदि अनेक नरेश आपके भक्त थे। उनका स्वर्गवास मार्गशीर्ष वदी १० संवत् १५३७ को हुआ था। चरण-वेदिकाओंके निकट एक मानस्तम्भ भी बना हुआ है। ऊपर जानेके लिए २७ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इसकी शीर्ष-वेदिकामें चारों दिशाओंकी ओर मुख किये हुए चार तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ विराजमान हैं। यहाँ एक ओर सम्मेदशिखरकी भव्य रचना निर्मित है।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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