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गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ गोपीपुराका भट्टारक हो गया था। गोपीपुराके भट्टारकने सूरतके नवाबसे यह फर्मान निकलवा दिया कि करमसदके भट्टारकको नर्मदाके पार न उतरने दिया जाये। जब करमसदके भट्टारक सूरतके लिए प्रस्थान करके भड़ोंच ( भृगुकच्छ ) आये तो नाविकोंने उन्हें नर्मदाके पार उतारनेसे इनकार कर दिया । तब भट्टारकजीने वहीं शतरंजी बिछा ली और मन्त्र-बलसे नर्मदाके दूसरे तटपर आ गये। नाविकोंने भडोंचके नवाबको इस अदभत घटनाकी सचना दी। नवाब वहां आया और भट्टारकजीसे क्षमा याचना की। भट्टारकजी वहांसे चलकर बरियाव आये और ताप्ती नदी पार करनी चाही किन्तु वहाँ भी नाविकोंने उन्हें पार उतारनेके लिए इनकार कर दिया । भट्टारकजी पुनः मन्त्र-बलसे सूरतमें बरियावी भागल द्वारपर आ गये। यहां उन्हें रोकनेके लिए द्वार बन्द कर दिये गये। तब वे मन्त्र-शक्तिसे आकाश-मार्ग द्वारा नवापुरामें उस स्थानपर आये, जहाँ मेवाड़ाका मन्दिर बना हुआ है। यह घटना सुनकर सूरतका नवाब और श्रावक आये और नवाबने अपनी भूलके लिए उनसे क्षमा मांगी। बादमें भट्टारकजीने उसी स्थानपर यह मन्दिर बनवाया। इन भट्टारकजीका नाम विजयकीर्ति था और इनके गुरु-भ्राताका नाम भट्टारक सकलकीति था । इनके गुरुका नाम भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति था। विजयकीर्तिने इस मन्दिरके भोयरेमें अपने गुरुकी चरण-पादुका स्थापित करायी जो अब भी मौजूद है। भट्टारक सुरेन्द्रकोर्तिजीका एक चित्र भी इस मन्दिरमें है जो उनके समयमें ही बनाया गया था। पहले यहां मेवाड़ा के काफी घर थे किन्तु अब तो केवल ८-१० ही घर जैन हैं, शेष सब वैष्णव बन गये।
___इस मन्दिरमें भगवान् पाश्वनाथकी एक पाषाण प्रतिमाका प्रतिष्ठाकाल उसकी चरणचौकोपर संवत् १३८० माह सुदी १२ रविवार अंकित है। पद्मावतीकी एक धातु-प्रतिमा संवत् ११६४ को', चौबीसीकी एक धातु-प्रतिमा सं. १४९० की और भगवान् आदिनाथकी एक धातुप्रतिमा संवत् १४९७ की है।
नवापुरामें चोपड़ाका एक जैन मन्दिर है। इसमें पाश्वनाथकी एक पाषाण-प्रतिमा संवत् ११६० की है और पद्मावतीकी एक धातु-प्रतिमा संवत् १२३५ की है। ___नवापुरामें तीसरा जैन मन्दिर गुजराती मन्दिर है। इसमें पाषाण-फलकपर उत्कीर्ण चौबीसी है। उसके मतिलेखमें जो प्रतिष्ठाकाल दिया गया है. वह ठीक नहीं पढ़ा जाता किन्त उसमें केवल तीन ही अंक हैं । पहला अंक पढ़नेमें नहीं आया, उसके आगे ७५ के अंक हैं। यहां धातु-प्रतिमाएं १३८०, १४२९, १४९९, १५०४, १५१८ की हैं।
रांदेरमें एक पुराना दिगम्बर जैन मन्दिर है। यह सूरतके दांडियाके मन्दिरको शाखा है। इसमें १६ इंच अवगाहनावाली भगवान् शान्तिनाथको मूलनायक प्रतिमा है जो संवत् १६६६ में भट्टारक वादिचन्द्रके उपदेशसे प्रतिष्ठित हुई। मन्दिर हूमड़ स्ट्रीटमें है । रांदेरसे लगभग १ कि. मी. पर भट्टारक विद्यानन्द स्वामी तथा अन्य भट्टारकोंके चरण हैं।
मुसलमानोंके आगमनसे पूर्व सूरत तथा रांदेरमें जैनोंकी संख्या बहुत बड़ी थी। मुसलमानोंने मन्दिरोंको तोड़कर उन्हींके मलवेसे मसजिदें बना लीं। सन् १९०८ का गजेटियर बताता है कि रांदेरको जामा मसजिद, मियाँ खरवा और मुंशीको मसजिदें जैन मन्दिरोंको तोड़कर बनायी गयी हैं।
१. सूरतमें १२वीं शताब्दीकी जिन प्रतिमाओंका उल्लेख किया गया है, वे कुछ वर्ष पूर्व वहाँ विद्यमान थीं।
ऐसे प्रमाण मिलते हैं । किन्तु वे अब वहाँ नहीं हैं।