________________
१९०
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ यहाँ पहले तीन मन्दिर बहुत प्रसिद्ध थे-(१) चन्दप्रभ जिनालय, (२) आदिनाथ जिनालय और (३) वासुपूज्य जिनालय । इन जिनालयोंके उल्लेख विभिन्न ग्रन्थों, प्रशस्तियों और मूर्तिलेखोंमें भी मिलते हैं। चन्द्रप्रभ जिनालयके सम्बन्धमें भट्टारक ज्ञानसागरजीने अपनी 'सर्वतीर्थ वन्दना' में इस प्रकार वन्दनापरक विवरण दिया है
'गुज्जर देश पवित्र धर्मध्यान गुण मण्डित । नगर सूर्यपुर नाम पाप मिथ्यात विहंडित । श्रीचन्द्रप्रभदेव मनमोहन प्रासादह । अगणित महिमा जास देखत मन आल्हादह ।। स्तवन कहे पातक हरे भविक जीव सेवे सदा।
ब्रह्म ज्ञानसागर वदति चन्द्रप्रभ वंदू मुदा ॥७१।।' सम्भवतः चन्द्रप्रभ जिनालयकी बहमान्यता उसकी अतिशयसम्पन्नताके कारण थी। किन्तु आदिनाथ जिनालय और वासुपूज्य जिनालय उस समय साहित्यिक केन्द्र बने हए थे। वहाँ रहकर बहुश्रुत भट्टारक ग्रन्थ प्रणयन करते थे अथवा प्राचीन ग्रन्थोंकी प्रतिलिपि करते थे। यहीं रहकर सेनगणके भट्टारक नरेन्द्रसेनने शक सं. १६५६ आश्विन कृष्ण १३ को यशोधर-चरितकी प्रति की। मूलसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छके भट्टारक महीचन्द्रके शिष्य जयसागरने संवत् १७३२ मगसिर सुदी १३ में सीताहरण और अनिरुद्धहरण नामक दो ग्रन्थ लिखे।
इसी प्रकार वासुपूज्य जिनालयमें गिरनारकी यात्राके लिए जाते हुए भट्टारक देवेन्द्रकोतिजी सूरत ठहरे, जहाँ माघ शुक्ला १ संवत् १७८५ को रामजी संघाधिपके पुत्र आनन्द नामक हूमड़ श्रावकने आपको णायकुमारचरिउको एक प्रति भेंट की। इसी जिनालयमें जब उक्त भट्टारकजी ठहरे हुए थे, उस समय संवत् १७८७ भाद्रपद शुक्ला ५ को आर्यिका पासमतीके लिए श्रीचन्द्र विरचित कथाकोषकी प्रति लिखवायी।
इन मन्दिरोंमें एक छोटा किन्तु सबसे पुराना मन्दिर गुजरातियोंके मन्दिरकी शाखा खपाटिया चकलामें चन्दाबाड़ी धर्मशालाके पास है। इस मन्दिरमें भोयरा ( गर्भगृह ) भी है। इसमें सबसे प्राचीन मूर्ति पार्श्वनाथ भगवान्की है जो संवत् १२३५ वैशाख सुदी १० को प्रतिष्ठित हुई थी। संवत् १९५६ में मन्दिरका जीर्णोद्धार हुआ। प्रतिमाओंको भोयरामेंसे ऊपर लाया गया और एक ऊंचा शिखरबन्द मन्दिर बनवाया गया।
चन्दावाड़ीके पास दूसरा बड़ा मन्दिर है। दिनांक २४ अप्रैल सन् १८३७ में यहाँके माछलीपीठ मुहल्ले में भयानक अग्निकाण्ड हुआ था। उसमें ६००० मकान जल गये थे। लगभग आधा शहर जल गया था। इसी अग्निकाण्डमें यह मन्दिर भी जलकर भस्म हो गया था, किन्तु प्रतिमाएं सुरक्षित रही थीं। सन् १८३९ से १८४१ तक इस मन्दिरका पुनर्निर्माण हुआ और सन् १८४२ में मन्दिरकी प्रतिष्ठा हुई। इस मन्दिरमें संवत् १३७६ से १८९९ तककी मूर्तियां हैं। मूलनायक प्रतिमा भगवान् आदिनाथकी है । यह सं. १३७६ की है।
इन दोनों मन्दिरोंमें जितनी मतियां हैं, वे सब बलात्कारगणके भटारकों द्वारा प्रतिष्ठित हैं।
नवापुरामें चिन्तामणि पार्श्वनाथका प्रसिद्ध मन्दिर है जो मेवाड़ा जातिके लोगोंने बनवाया था। इस मन्दिरके सम्बन्धमें एक बड़ी रोचक किंवदन्ती प्रचलित है । गोपीपुराके भट्टारकके दो शिष्य थे-एक मूर्ख था और दूसरा विद्वान् । उन दोनोंमें आपसमें झगड़ा हो गया। मूर्ख शिष्यको लज्जा आयी। वह विद्याध्ययनके लिए कर्नाटक चला गया और खूब विद्वान् बन गया तथा करमसदकी गद्दीका भट्टारक बन गया। उसने सूरत आनेका विचार किया। उसका गुरुबन्धु