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________________ गुजरात दिगम्बर जैन तीर्थं जिनवर धाम पवित्र भूमिगृहमें जिन पासह । ... .... || नामे नवनिधि संपजे सकल विघ्न भंजे सदा । ब्रह्मज्ञानसागर वदति विघ्नहरो वंदूं मुदा ||६९॥ १८७ लगता है, प्राचीन काल में यह क्षेत्र विद्यारसिकोंके लिए केन्द्र-स्थान रहा है । यहीं पर बैठकर मूलसंघ सरस्वतीगच्छके भट्टारक प्रभाचन्द्रके शिष्य भट्टारक वादिचन्द्रने 'ज्ञानसूर्योदय' नाटककी रचना की थी । उन्होंने इस ग्रन्थकी समाप्ति विक्रम सं. १६४८ में की थी, जैसा कि इस नाटकके अन्तिम श्लोक से ज्ञात होता है "वसु- वेद-रसाब्जके वर्षे माघे सिताष्टमी दिवसे । श्रीमन्मधूकनगरे सिद्धोऽयं बोधसंरभः ॥" अर्थात् - मधूक नगर ( महुवा ) में सं. १६४८ में यह ग्रन्थ पूर्णं हुआ । इसी प्रकार कारंजाके सेनगणान्वयी लक्ष्मीसेनके शिष्य ब्रह्महर्षंने भी 'महुवा विघन हरे सहु धेनं' कहकर महुआ के पार्श्वनाथका उल्लेख किया है । यह उल्लेख उनकी 'पार्श्वनाथ जयमाला' का है । भट्टारक ज्ञानसागर और वादिचन्द्रके उल्लेखोंसे यह भी ज्ञात होता है कि महुआका प्राचीन नाम मधुकर नगर या मधूकनगर था। तथा यहां प्राचीन कालमें जैनोंकी विशाल जनसंख्या थी । कहीं-कहीं इस नगरका नाम मधुपुरी भी मिलता है । मन्दिरका विनाश इस अतिशय क्षेत्रपर न जाने क्या भयंकर भूल या अशुद्धि हुई, जिसके परिणाम स्वरूप इस क्षेत्रको भोषण आग और बाढ़की दुर्घटनाका तीन बार शिकार होना पड़ा। प्रथम बार सन् १९२९ में मन्दिर के आसपास १० घरोंमें भीषण अग्निकाण्ड हुआ। जिसमें मन्दिरकी ऊपरी मंजिलका भाग अग्निमें भस्म हो गया । वहाँ भट्टारक -गद्दी और शास्त्र भण्डार था । यहाँ उस समय दो मन्दिर थे - चन्द्रप्रभ मन्दिर और पार्श्वनाथ मन्दिर । इन मन्दिरोंमें लकड़ीपर दर्शनीय नक्काशीका काम था । किन्तु अधिकांश नष्ट हो गया । दूसरी बार सन् १९६८ ओर तीसरी बार सन् १९७० में विनाशकारी बाढ़के प्रकोपने मन्दिरको अपनी चपेट में ले लिया। दोनों ही बार मन्दिरका अधिकांश भाग पानीमें डूब गया । इससे मन्दिरको बहुत क्षति पहुँची । तीन बारकी इन दुर्घटनाओंमें दोनों मन्दिर धराशायी हो गये अथवा क्षतिग्रस्त हो गये । किन्तु यह संयोग ही था कि किसी मूर्तिको कोई क्षति नहीं पहुँची और विघ्नहर पार्श्वनाथकी प्रतिमा एवं भोंयरा सुरक्षित रहे । तब बम्बई, सूरत तथा अन्य स्थानोंके जैन बन्धुओंने एकत्रित होकर मन्दिरके पुनर्निर्माणका निश्चय किया । फलतः अब नवीन महत्त्वाकांक्षी योजनाके अनुसार शिखरबन्द मन्दिर, धर्मशाला और स्वाध्याय मन्दिरका निर्माण किया जा रहा है । विश्वास किया जाता है कि निर्माणकार्य सम्पन्न होनेपर मन्दिर विशाल, भव्य और अधिक सुरक्षित बन जायेगा । 1 क्षेत्र-दर्शन मन्दिरका निर्माण कार्य चल रहा है । चन्द्रप्रभ मन्दिरकी मूर्तियाँ एक कमरे में विराजमान कर दी गयी हैं । तथा विघ्नहर पार्श्वनाथ अपने मूलस्थान भोंयरेमें ही विराजमान हैं । कुछ
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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