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भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ नीचे १-१ खड्गासन प्रतिमा है। सबसे अधोभागमें खड्गासन प्रतिमाएं हैं। इस फलकका प्रतिष्ठाकाल संवत् १२४५ है।
दायीं ओर एक श्वेत फलकमें अजितनाथ भगवान की पद्मासन प्रतिमा है। फलकका आकार ४ फुट ५ इंच है। ऊपरका तथा दायीं ओरका भाग खण्डित प्रतीत होता है। नीचे खड्गासन प्रतिमाएं हैं। इसकी प्रतिष्ठा वैशाख सुदी ४ शुक्रवार संवत् १२४५ में पण्डिताचार्य भट्टारक सहस्रकीर्तिने की थी।
आगेकी पंक्ति में १ फुट ७ इंच ऊंची और संवत् १९४४ में प्रतिष्ठित ६ पाषाण मूर्तियां तथा उनसे आगे ७ धातु-मूर्तियां हैं, जिनमें २ चौबीसी हैं। गर्भगृहके द्वारके दोनों पार्यो में १-१ वेदी है। बायीं ओरकी वेदीमें वीर नि. संवत् २४७७ में प्रतिष्ठित १ फुट ६ इंच ऊंची श्वेतवर्ण सम्भवनाथकी पद्मासन मूर्ति है । इसके आगे १ फुट १ इंच ऊँची दो खड्गासन धातु-मूर्तियाँ हैं। ये मूर्तियाँ राम-पुत्र मदनांकुश और लवणांकुश अहंन्तोंकी हैं। इनकी प्रतिष्ठा संवत् २०२५ में हुई थी।
दायीं ओर को वेदीमें श्वेत पाषाणकी २ फुट २ इंच ऊँची पाश्वनाथ भगवान्की संवत् १९४४ के प्रतिष्ठित पद्मासन प्रतिमा है। इसके आगे धातुकी दो चौबीसी हैं।
पाश्वनाथ वेदीके निकट पीतलका ४ फुट १० इंच ऊंचा पंचमेरु जिनालय है। यह चतुर्मुखी है। प्रत्येक खण्डमें एक पद्मासन प्रतिमा है। उसके ऊपर छत्र है। छत्रके दोनों ओर हाथीपर कलश लिये हुए इन्द्र हैं। हाथीसे नोचे दो पद्मासन मूर्तियां हैं। उनसे नीचे दो खड्गासन मूर्तियाँ हैं। पीठासनके नीचे हाथी और सिंह हैं तथा दोनों ओर कोनोंमें यक्ष-यक्षी हैं। इस प्रकार प्रत्येक खण्डमें ५४४= २० मूर्तियां हैं और चार खण्डोंमें २०४४=८० मूर्तियाँ हैं। मूर्तियोंसे नोचेके भागमें सकलकीर्ति, भुवनकीर्ति, ज्ञानकीर्ति और ज्ञानभूषण भट्टारकोंकी कायोत्सर्ग मुद्रावाली मूर्तियां हैं। इनके हाथोंमें माला और पीछी है तथा नीचे कमण्डलु रखा है । मूर्तियोंके नीचे उनके नाम भी अंकित हैं। इसपर अंकित लेखके अनुसार संवत् १५३७, वैशाख सुदी ३, सोमवारको दिलुलिग्राममें राजाधिराज भानुविजयके राज्य में मूलसंघ नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ बलात्कारगण कुन्दकुन्दाचार्यान्वयके भट्टारक पद्मनन्दिदेव, तत्पट्टस्थ भट्टारक सकलकीर्तिदेव तत्पट्टस्थ भट्टारक भुवनकीर्तिदेव तत्पट्टस्थ भट्टारक ज्ञानभूषण गुरुके उपदेशसे इसको प्रतिष्ठा की गयी। भट्टारकोंकी चार मूर्तियोंमें जो भट्टारक ज्ञानकोतिकी मूर्ति उत्कीर्ण की गयी है, वे भट्टारक ज्ञानभूषणके गुरुबन्धु और भट्टारक भुवनकोतिके शिष्य थे। भट्टारक ज्ञानकीर्तिने मानपुरमें भट्टारक पीठको स्थापना की, जबकि शेष तीन भट्टारक ईडरको पीठसे सम्बन्धित थे।
लेखसे यह ज्ञात होता है कि यह पंचमेरु मूलतः इस मन्दिरका नहीं है, बल्कि दूसरे मन्दिरसे लाकर यहाँ विराजमान किया गया है। इसी प्रकार मुख्य वेदीपर विराजमान सम्भवनाथ और अजितनाथकी बारहवीं शताब्दीको दोनों प्रतिमाएं भी इस मन्दिरकी नहीं हैं, बल्कि किसी अन्य मन्दिरसे लायो गयी हैं। हमारा अनुमान है कि ये प्रतिमाएँ पावागढ़ पर्वतके प्राचीन मन्दिरोंसे लायी गयो होंगी। यही हमारा अनुमान सही है तो वे मन्दिर १२ शताब्दी या इससे पूर्वके हैं, इस बातकी भी पुष्टि हो जाती है।
इस मन्दिरके सामने ५० फुट ऊंचा भव्य मानस्तम्भ है।
पार्श्वनाथ मन्दिर-धर्मशालासे बाहर पार्श्वनाथ मन्दिर है। इस मन्दिरमें गर्भगृह, सभामण्डप और बन्द बरामदा है। गर्भगृहमें मूलनायक भगवान्की प्रतिमा विराजमान है। यह कृष्ण पाषाणको है, पद्मासन है, सप्तफणी है और १ फुट ८ इंच उत्तुंग है। इसकी प्रतिष्ठा वीर नि. संवत् २४७७ में हुई थी।