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________________ तियाटि नरेगोने दस गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ १७३ इस तीर्थको अतिशय मान्यताका कारण बताते हुए आचार्य जिनप्रभ कहते हैं-यहाँसे वृषभसेन आदि असंख्य मुनि मुक्त हुए हैं और पद्मनाथ आदि भावी तीर्थंकरोंके समवसरण यहाँ आवेंगे । नेमिनाथ भगवान्को छोड़कर शेष तेईस तीर्थंकरोंके समवसरण यहां आये थे । भरतचक्रीने यहाँ चैत्य निर्मित कराया । यहाँसे भरतचक्रोके प्रथम पुत्र और ऋषभदेवके प्रथम गणधर मुक्त हुए । नमि-विनमि दो करोड़ मुनियोंके साथ यहींपर मुक्त हुए। द्रविड़ बालखिल्यादि कोटि मुनियोंके साथ यहींसे सिद्धि-लाभ किया। जयराम राजर्षि आदि तीन कोटि मुनियोंका यहाँ आगमन हुआ। नारद आदि ९१ लाख मुनियोंने यहाँसे शिवपद पाया। प्रद्यम्न, शाम्ब आदि कुमारोंने साढ़े आठ करोड़ मुनियोंके साथ यहाँसे निर्वाण प्राप्त किया। ऋषभदेवके वंशमें आदित्ययशसे लेकर सगर पर्यन्त पचास करोड़ लाख नरेशोंको शिवपद मिला। भरतके पूत्र शैलक, शुक आदि असंख्यात कोटाकोटि मुनियोंने मुक्ति प्राप्त का। कुन्तीके साथ बीस कोटि मुनि और पाँचों पाण्डव यहाँसे मुक्त हुए। अजितनाथ और शान्तिनाथ तीर्थंकरोंने यहाँ चातुर्मास व्यतीत किये । नेमिनाथके उपदेशसे यात्रार्थ आये हुए नन्दिषेण-गणेशने अजितनाथ-शान्तिनाथका सर्व-रोगहर स्तवन किया और असंख्य प्रतिमा और मन्दिरोंका यहाँ निर्माण किया । सम्प्रति, विक्रमादित्य, सातवाहन, वाग्भट, पादलिप्त, आमदत्त आदिने यहाँ उद्धार-कार्य किये। तीर्थोंका उच्छेद होनेपर इसका ऋषभकूट पद्मनाभ ( भावी प्रथम तीर्थंकर ) के तीर्थकाल तक स्थिर रहेगा और पूजा जाता रहेगा। वाग्भट मन्त्रीने तीन लाख कम तीन करोड़ मुद्राएं व्यय करके आदीश्वर मन्दिरका निर्माण कराया। वि. सं. १०८ में जावडिने बहुत धन लगाकर रत्न प्रतिमा विराजमान करायी। इस प्रकार यह तीर्थ अनादि-निधन है। क्षेत्र-दर्शन पालोताना शहरसे शत्रुजय गिरिको तलहटी एक मोल दूर है। पालीताना शहर में एक दिगम्बर जैन मन्दिर है जो संवत् १९४८ में तैयार हुआ और उसकी प्रतिष्ठा संवत् १९५१ में माघ सुदो ५ को संघपति सेठ हरिभाई देवकरन तथा सेठ मोतीचन्द पद्मचन्द शोलापुरवालोंने भट्टारक कनककीतिजी द्वारा करायी। यहाँसे पहाड़को तलहटी तकके लिए सवारियां मिलती हैं। पर्वतकी सम्पूर्ण चढ़ाई लगभग ४ कि. मी. है। पत्थरकी सड़क तथा सीढ़ियाँ बनी हुई हैं, जिनके कारण चढ़ाई सरल हो गयी है। यह पर्वत एक प्रकारसे जैन मन्दिरोंका गढ़ है। पर्वतके ऊपर श्वेताम्बर समाजके लगभग ३५०० मन्दिर और मन्दरियाँ हैं। एक स्थानपर इतनी भारी संख्यामें कहींपर हिन्दुओं और बौद्धोंके भी मन्दिर नहीं हैं। इन मन्दिरोंमें कई मन्दिरोंका शिल्प-सौन्दर्य और उनकी स्थापत्य कला अनूठो है। इन मन्दिरोंका बाह्य वैभव भी मोहित करनेवाला है। इनमें से अनेक मन्दिरोंमें विभिन्न प्रकारके रत्नों और स्वर्णकी प्रतिमाएँ हैं, अनेक प्रतिमाओंके मुकुट, किरीट, आभूषण रत्नजटित हैं। भक्तोंने जिनेन्द्र प्रभुके चरणोंमें करोड़ों-अरबों रुपये भक्तिवश अर्पित करके जिनायतन नगरीका निर्माण किया है। यह अपार वैभव सम्राट् एवं नरेश तीर्थंकरोंका है। ___ इन सराग वैभवसम्पन्न जिनायतनोंकी मालामें मणिके समान जाज्वल्यमान एक वीतराग दिगम्बर तीर्थंकर मन्दिर शोभायमान है। इस पर्वतपर मुख्य दो टोंके हैं। प्रथम टोंकपर कोई दिगम्बर मन्दिर नही सरो टोकपर श्वेताम्बर मन्दिरोंके केन्द्रमें परकोटेके भीतर एक
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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