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________________ १७२ भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ उनका उपयोग तो आत्मामें केन्द्रित था। वे शुक्लध्यानमें लीन हो कर्म शत्रुओंका संहार कर रहे थे। उधर कुर्युवर उनके तिल-तिल जलते हुए अंगोंको देखकर मन में अत्यन्त मुदित हो रहा था और अपने प्रतिशोधको सफलतापर गर्व कर रहा था। शुक्लध्यानके बलसे युधिष्ठिर, भीम और अर्जनने घातिया एवं अघातिया कर्मोंका विनाश किया और मक्त हो गये। उनके जन्म-मरणको श्रृंखलाका अन्त हो गया। नकूल और सहदेव पूर्णतः आत्म-विजय नहीं कर पाये। अतः वे कर्मोका नाश नहीं कर सके । वे सर्वार्थसिद्धि विमानमें अहमिन्द्र बने। इस प्रकार शत्रुजय पर्वत पाण्डवोंकी निर्वाण-भूमिके रूपमें विख्यात है। पश्चात्कालीन लेखोंमें भट्टारक उदयकीर्ति, श्रुतसागर, गुणकीति, मेघराज, सुमतिसागर, सोमसेन, जयसागर, चिमणा पण्डित, देवेन्द्रकीर्ति, पण्डित दिलसुख, कवीन्द्र सेवक आदिने भी इसे सिद्धक्षेत्र माना है। इनमें से किसीने तो केवल सिद्धक्षेत्रके रूपमें इसका नामोल्लेख-भर कर दिया है और किसीने पाण्डवों तथा ८ कोटि द्रविड़ राजाओंके मुक्ति-क्षेत्रके रूपमें इसका उल्लेख किया है। भट्टारक देवेन्द्रकीतिने यहाँ माघ कृष्णा ४ सोमवार शक सं. १६५१ ( सन् १७०८-९ ) में यात्रा की थी। उस यात्राके संस्मरण रूपमें उन्होंने जो पद्य-रचना की है, उसमें उन्होंने शत्रुजयका नाम अरिजय दिया है। ___किन्तु भट्टारक ज्ञानसागरने शत्रुजयका जो वर्णन किया है, उसमें कुछ बातें अद्भुत हैं । उन्होंने सिद्धक्षेत्र होनेकी मान्यताके साथ यह भी लिखा है कि यहाँ भगवान् ऋषभदेव बाईस बार पधारे थे तथा यहां ललित सरोवर एवं अक्षय वट है। ऋषभदेव भगवान्के बाईस बार पधारनेकी जो बात इन्होंने लिखी है, वह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। सम्भवतः अक्षय वटके साथ भी भगवान्का सम्बन्ध रहा हो। किन्तु ज्ञानसागरजीने यह बात किस आधारसे लिखी है, वह अवश्य अन्वेषणीय है क्योंकि किसी जैन शास्त्र या पुराणमें किसी स्थानपर किसी तीर्थंकरके पधारनेकी संख्या नहीं दी है । ज्ञानसागरजीका उक्त छप्पय इस भांति है "शत्रुजय सुविशाल नयर तिहाँ पालीताणो। अष्ट कोडि मुनि मुक्ति सिद्धसुक्षेत्र बखाणो। वृषभदेव जिनराय वार वावीस पधार्या । कहि उपदेश अनंत भविक जीव बह तार्या ।। ललित सरोवर अखयबड देखत आनंद ऊपजे। ब्रह्मज्ञानसागर वदति स्वर्ग मोक्ष सुख संपजे ॥११॥" श्वेताम्बर सम्प्रदायमें शत्रुजयकी मान्यता श्वेताम्बर सम्प्रदायमें शत्रुजय तीर्थकी मान्यता अन्य सभी तीर्थोंसे अधिक है, यहाँ तक कि सम्मेद शिखरकी अपेक्षा भी शत्रुजयको विशेष महत्त्व प्राप्त है। आचार्य जिनप्रभसूरिने विविधतोर्थ-कल्पके शत्रुजय तीर्थकल्पमें शत्रुजयकी महिमाका वर्णन किया है। उन्होंने इसमें बताया है कि शत्रुजयके २१ नाम हैं-सिद्धिक्षेत्र, तीर्थराज, मरुदेव, भगीरथ, विमलाद्रि, बाहुबली, सहस्र कमल, तालध्वज, कदम्ब, सहस्रपत्र, ढंक, लोहित्य, कपर्दिनिवास, सिद्धिशेखर, शत्रुजय, शतपत्र, नगाधिराज, अष्टोत्तर शतकूट, मुक्ति-निलय, सिद्धि पर्वत और पुण्डरीक । १. उत्तरपुराण ७२।२६७-२७०; हरिवंशपुराण ६३।१८-२२ ।
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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