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गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ प्राइवेट गेस्ट हाउस है, जिसमें प्रति कमरेका दस रुपये दैनिक शुल्क है। यहांका पता इस प्रकार है
मैनेजर, श्री दिगम्बर जैन स्वाध्याय मन्दिर ट्रस्ट, पो० सोनगढ़ ( सौराष्ट्र)
शत्रुजय
सिद्धक्षेत्र
शत्रुजय गिरि निर्वाण-क्षेत्र है । इस स्थानसे युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन ये तीन पाण्डव तथा आठ कोटि द्रविड़ राजा अष्टकर्मोंका नाश करके मुक्त हुए थे। जैसा कि निर्वाण-काण्डमें बताया है
"पंडुसुआ तिण्णिजणा दविडरिंदाण अट्ठकोडीओ। .
सत्तुंजय गिरिसिहरे णिव्वाणगया णमो तेसि ॥" इसी प्रकार संस्कृत निर्वाणभक्तिमें भी पाण्डवोंका मुक्ति-स्थान शत्रुजयगिरिको माना है। यथा हि
"शत्रुजये नगवरे दमितारिपक्षाः पण्डोः सुताः परमनिर्वृतिमभ्युपेताः।"
आचार्य जिनसेनने 'हरिवंश-पुराण' में पाण्डवोंकी अन्तिम अवस्थाका वर्णन करते हुए बताया है कि
'ज्ञात्वा भगवतः सिद्धि पश्चपाण्डवसाधवः। शत्रुजयगिरौ धीराः प्रतिमायोगिनः स्थिताः ॥६५-१८॥ शुक्लध्यानसमाविष्टा भीमार्जुनयुधिष्ठिराः।।
कृत्वाष्टविधकर्मान्तं मोक्षं जग्मुस्त्रयोऽक्षयम् ।।६५-२२।। अर्थात् भगवान् नेमिनाथको निर्वाण-प्राप्तिका समाचार जानकर पांचों पाण्डव मुनि शत्रुजयके ऊपर प्रतिमायोग धारण करके स्थित हो गये । युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन शुक्लध्यानमें स्थिर होकर और आठों कर्मोंका विनाश करके मुक्तिमें चले गये अर्थात् मुक्त हो गये।
इन पाण्डवोंके सम्बन्धमें हरिवंश-पुराण आदिमें कथानक मिलता है कि
पाण्डवोंने भगवान् नेमिनाथसे अपने भवान्तर सुनकर मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली और कठिन तपश्चर्या करने लगे। उन्हें अनेक प्रकारको ऋद्धियां प्राप्त हो गयीं.किन्तु उन्हें इन ऋद्धियोंसे क्या प्रयोजन था, अब तो उनकी दृष्टि बाह्यसे हटकर आत्मकेन्द्रित हो गयी थी। वे अनेक वर्षों तक भगवान् नेमिनाथके साथ विहार करते रहे और अन्तमें शत्रुजय पर्वतपर जाकर आतापन योग धारण करके विराजमान हो गये। एक दिन कौरवोंका भानजा कूयंवर भ्रमण करता हआ उधर आ निकला । :पाण्डवोंको देखते ही उसे अपने मामाके वध और मातुल कुलके विनाशका स्मरण हो आया । स्मरण आते ही उसके मनमें भयानक क्रोधाग्नि प्रज्वलित हो उठी और उसने पाण्डवोंसे प्रतिशोध लेनेका संकल्प कर लिया। वह नगरमें गया और लौहकारसे लोहेके मुकुट, कुण्डल, हार, केयूर आदि बनवाकर लाया। उसने उन्हें अग्निमें तपाया। उन तप्त आभूषणोंको पाण्डवोंको पहना दिया। पाण्डवोंके अंग जलने लगे। किन्तु उन्हें तो बाह्यकी सुधि ही नहीं थी,