________________
१६८
भारतके दिगम्बर जैन तीर्थ है। मार्ग-दर्शन तो गुरु ही कराते हैं, उन्होंने जो मार्ग दिखाया, गुरु वचनोंपर विश्वास करके उस मार्गको हो सत्य स्वीकार करना है।
इस प्रकार गुरु-भक्तिसे प्रेरित होकर धीरे-धीरे सौराष्ट्रके उनके सम्पूर्ण भक्त अनुयायी सोनगढ़में आने लगे। कुछ ही समयमें जंगलमें मंगल हो गया। उस अज्ञात, एकान्तमें पड़े हुए गांवमें जीवन आ गया। भक्तोंने वहां लाखों रुपये व्यय करके धर्मायतनोंका निर्माण कराया। वहाँ दिगम्बर जैन मन्दिर, समवसरण मन्दिर, मानस्तम्भ, स्वाध्यायशाला, अतिथिगृह, प्रवचन मण्डप, श्राविकाश्रम, परमागम मन्दिर बन गये । प्रेस लग गया, पत्रों और पुस्तकोंका प्रकाशन होने लगा। सम्पन्न भक्तोंने वहां अपने ठहरनेके लिए सुन्दर भवन बनवा लिये। अनेक बालिकाओंने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत अंगीकार किया। अनेक धर्मरसिक गृहविरत होकर स्थायी रूपसे वहीं रहने लगे।
इस सम्पूर्ण बाह्य परिवेशके केन्द्रबिन्दु श्री कानजी स्वामी हैं। इस कायामें परिस्पन्दन करनेवाली शक्ति श्री कानजी स्वामी हैं। उनके प्रभावक व्यक्तित्व, समर्थ वाणी, सुनियोजित सुगठित प्रचारने सम्पूर्ण भारतको सम्पूर्ण दिगम्बर समाजके सहस्रों व्यक्तियोंको उनका अनुयायी और समर्थक बना दिया है। सहस्रों व्यक्तियोंकी सहानुभूति उनके साथ है। उनके उपदेशोंसे अनेक स्थानोंपर दिगम्बर जैन मन्दिर बन गये हैं। जिस सौराष्ट्रमें दिगम्बर जैनोंकी संख्या नाममात्रकी थी, वहां आज हजारों दिगम्बर जैन दिखाई देते हैं। यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इस सबके पीछे केवल स्वामीजीका व्यक्तित्व ही काम नहीं कर रहा है बल्कि उनको अप्रतिम प्रतिभा, सूझबूझ और संगठन शक्ति भी काम कर रही है। इस सबके अतिरिक्त धनकी भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है।
स्वामीजीका व्यक्तित्व अत्यन्त विवादास्पद है। वे जब स्थानकवासी सम्प्रदायमें थे, तब भी विवादास्पद रहा था और जबसे दिगम्बर सम्प्रदायमें आये हैं, तब भी उनको लेकर विवाद उठ खड़े हुए हैं। विवादका मूल मुद्दा यह है-क्या व्यवहारनिरपेक्ष एकान्त निश्चय जैनधर्मके निश्चय-व्यवहार समन्वयपरक मोक्षमार्गके अनुकूल हो सकता है ? स्थिति पालक और विरोधी पक्षकी एक मुख्य आपत्ति यह भी है कि कानजी स्वामी और उनके पक्षधर समस्त दिगम्बर मुनियोंकी अवहेलना करते हैं, उन्हें द्रव्यलिंगी कहते हैं। बल्कि निर्ग्रन्थ मुनियोंके मुकाबले सग्रन्थ श्रावक कानजी स्वामीको महान् सद्गुरुदेवके रूपमें मान्यता देते हैं। ऐसी बातोंको लेकर ही विरोधी पक्ष यह प्रचारित करने में लगा हुआ है कि कानजी स्वामी एक पृथक सम्प्रदायकी योजनामें लगे हुए है।
निस्सन्देह कानजी स्वामी सदासे विवादास्पद व्यक्तित्वके व्यक्ति हैं, किन्तु उन्होंने अध्यात्मकी जो रस-गंगा बहायी है, उसने दिगम्बर समाजको वर्तमान विचारधारामें समर्थ स्पन्दन उत्पन्न कर दिया है। समाजमें एक ऐसा वर्ग उत्पन्न हो गया है जिसे स्वाध्याय या शास्त्रसभामें प्रथमानुयोगके 'राजा-रानीके किस्सों के स्थानपर द्रव्यानुयोगके शास्त्रोंकी चर्चामें अधिक रस आता है। ऐसे अध्यात्म रसिक व्यक्तियोंका विशाल समूह सोनगढ़ जाता रहता है और कानजी स्वामीके मुखसे अध्यात्मका धारावाही प्रवचन सुननेमें अपने आपको धन्य मानता है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि जो व्यक्ति सोनगढ़ जाता है, वह कानजी स्वामीसे और वहाँके वातावरणसे प्रभावित होकर लौटता है। कानजी स्वामी और उनके विद्वान प्रचारकों को प्रचार-शैली उच्च स्तरकी है। वे अपनी बात दृढ़ताके साथ कहते हैं, दूसरोंकी निन्दा या आलोचना नहीं करते । वे विरोधको भी चर्चा नहीं करते और न विरोधी पक्षको कोई उत्तर ही देते हैं। सोनगढ़का सम्पूर्ण कार्यक्रम अत्यन्त समयबद्ध, अनुशासनपूर्ण और नियमित होता है। वहाँ अध्यात्म चर्चाके अतिरिक्त अन्य