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________________ गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ १६७ सोनगढ़ अवस्थिति और मार्ग सोनगढ़ गुजरात प्रान्तके भावनगर जिले में अवस्थित है। अहमदाबादसे वीरमगांव, सुरेन्द्रनगर और वहांसे भावनगर जानेवाली ट्रेनसे धौला और सीहोर जंक्शनके मध्य में सोनगढ़ स्टेशन है। यह स्टेशन धौला जंक्शन से २१ कि. मी. है। धौला और सोनगढ़के मध्यमें दो छोटे स्टेशन हैं-सनोसरा और वजूड । सोनगढ़ स्टेशनसे सोनगढ़ गांव एक मील है। स्टेशनसे ताँगे मिलते हैं। स्वामीजीका नाम लेनेसे जैनधर्मशालामें पहुंचा देते हैं। अहमदाबादसे वोटाद और वोटादसे धौला जंक्शन पहुंचकर भी सोनगढ़ जा सकते हैं। जो लोग गिरनारकी यात्रा करके सोनगढ़ जाना चाहते हैं, उन्हें जूनागढ़, जैतलसर, ढसा होकर धौला उतरना चाहिए और धौलासे भावनगर जानेवाली ट्रेनसे सोनगढ़ उतरना चाहिए। जो लोग सोनगढ़से पालीताणा जाना चाहें, उन्हें सोनगढ़से बस द्वारा जाना चाहिए । सोनगढ़से पालीताणा केवल २२ कि. मी. है। सोनगढ़से भावनगर २८ कि. मी. है। रोडसे अहमदाबादसे भावनगर जाकर वहांसे सोनगढ़ जा सकते हैं। अथवा अहमदाबादभावनगर रोडपर सीहोर (भावनगरसे १९ कि. मी. पहले) से सोनगढ़को पक्की सड़क जाती है। तीर्थक्षेत्र यद्यपि सोनगढ़ कोई तीर्थक्षेत्र नहीं है, किन्तु आध्यात्मिक सन्त श्री कानजी स्वामीके कारण यह एक महत्त्वपूर्ण स्थान और तीर्थक्षेत्र ही बन गया है। स्वामीजीके दर्शन करने, उनके आध्यात्मिक प्रवचनामृतका पान करने एवं उनके आध्यात्मिक सत्संगमें रहनेके लिए यहाँ बहुसंख्यामें भक्तजनोंका आगमन होता रहता है। जन्मतः कानजी स्वामी स्थानकवासी जैन थे। फिर वे २३ वर्षकी आयुमें स्थानकवासी साधु और फिर आचार्य बने । अपनी विद्वत्ता और विशिष्ट व्यक्तित्वके कारण सौराष्ट्रके स्थानकवासी साधुओंमें उनका स्थान और मान्यता सर्वोपरि थी। किन्तु अपने मौलिक चिन्तन और तात्त्विक प्रवचनोंके कारण अपने सम्प्रदायमें ही उनके अनेक विरोधी हो गये। स्थानकवासी सम्प्रदायके पत्रोंमें उनकी कड़ी आलोचना होती रहती थी। एक दिन उन्हें 'समयसार' ग्रन्थराज कहींसे मिल गया। उन्होंने इसका गहन अध्ययन किया, गहन मनन और चिन्तन किया और वे इस निष्कर्षपर पहुंचे कि धर्म वस्तुतः यही है, आत्मश्रद्धा एवं आत्मानुभवके बिना समस्त चारित्र और बाह्य परिवेश निष्फल है। उस समय वे विहार करते हुए सोनगढ़ चले आये। यहाँ जैनका कोई गृह नहीं था। इस एकान्त स्थानमें चैत्र सूदो १३ सं. १९९१ को इन्होंने स्थानकवासी सम्प्रदायको मान्यताका त्याग करके मुखपट्टिका उतार दी और दिगम्बर धर्मके प्रति अपनी आस्थाकी घोषणा की। इससे स्थानकवासी सम्प्रदायमें एक भयानक तूफान उठ खड़ा हुआ। स्थानकवासी पत्रोंमें उनकी कड़ी आलोचना होने लगी। कुछ समय पश्चात् श्री रामजी भाई राजकोटसे यहाँ आ गये। धीरे-धीरे विरोधका वातावरण शान्त होता गया और इनके भक्त यहाँ आने प्रारम्भ हो गये। पहले वे लोग आये जो साधु अवस्थामें इनके भक्त थे। वे साध दशामें भी इनको अपना गुरु मानते थे और अब इस दशामें भी अपना गुरु मानते थे । गुरुने पहले जिस मार्गको सत्य बताया था, उसको सत्य मानकर उसका पालन करना है क्योंकि गुरुका वचन तथ्य होता
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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