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गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ पहाड़की यात्राको जानेवाले यात्रियोंको यह ध्यानमें रखना चाहिए कि इस पर्वतपर दिगम्बर, श्वेताम्बर और हिन्दू सभी लोग जाते हैं । सदासे इस पवित्र क्षेत्रपर दिगम्बर समाजका अधिकार रहा है। दिगम्बर समाजके बहुमान्य तीर्थक्षेत्रोंपर अधिकार करनेके अभियानमें श्वेताम्बर समाजने इस क्षेत्रपर भी अपने स्वामित्वका दावा किया। कई मन्दिरोंपर अधिकार भी कर लिया। दोनों समाजोंमें मुकदमे चले। दोनों समाजोंके अनैक्यका लाभ उठाकर हिन्दू समाजने भी दावा करना प्रारम्भ कर दिया । व्यवहारतः श्वेताम्बर लोग प्रथम टोंक तक ही जाते हैं। राखंगारके दुर्गके द्वारके निकट उनके ९ मन्दिर हैं, वहीं खाने-पीनेकी व्यवस्था है। वे लोग वहाँके आदिनाथ मन्दिरमें ही पूजा-पाठ करते हैं । वे लोग अन्य टोंकोंपर बहुत कम संख्यामें जाते हैं । हाँ, हिन्दू समाजके साधुओंने रास्ते में बने हुए मण्डपों, भवनों और टोंकोंपर अधिकार कर रखा है। उन्होंने गोमुखीपर और अम्बादेवोके मन्दिरपर तो अपना पूर्ण अधिकार जमा ही लिया है, नेमिनाथ टोंक (पांचवीं टोंक) पर भी हिन्दू साधु बैठे रहते हैं। वहां यात्री जो कुछ चढ़ाते हैं, उसे तत्काल समेट लेते हैं । वे जैन बन्धुओंके साथ कभी-कभी बड़ा अभद्र व्यवहार करते हैं। कई बार तो उन्होंने जैन मुनियों और आचार्योंके साथ भी अपमानजनक व्यवहार किया है । नेमिनाथ टोंकके सामने प्राचीन स्मारकोंके संरक्षणसे सम्बन्धित बोर्ड लगा हुआ है। किन्तु पुरातत्त्व-विभाग और पलिस दोनों ही टोंकपर साधओंके अवैध अधिकारके प्रति उदासीन हैं। अन्य टोंकोंपर भी इन साधुओंने इसी प्रकार अधिकार कर रखा है। किन्तु यह कितना रोचक तथ्य है कि चौथी टोकपर ये साधु नहीं बैठते क्योंकि वहाँ सोढ़ियाँ नहीं हैं, अतः वहाँ प्रायः यात्री नहीं जाते।
उपर्युक्त सूचनाएं यात्रियोंकी जानकारीके लिए दी गयी हैं। अब यहाँ क्षेत्र-दर्शन दिया जा रहा है
धर्मशालासे कुछ दूर चलनेपर पहाड़ आ जाता है और सीढ़ियोंका सिलसिला प्रारम्भ हो जाता है।
प्रथम टोंक-लगभग दो मीलकी चढ़ाई चढ़नेपर दिगम्बर मन्दिर और धर्मशालासे कुछ पहले राजीमतीकी गुफा मिलती है । इसे राजुल गुफा कहते हैं। यह गुफा बहुत नीची है। इसमें बैठकर जाना पड़ता है तथा उसके अन्दर भी खड़े नहीं हो सकते । श्वेताम्बर मान्यता है कि साध्वी राजुलमती इस गुफामें तपस्या करती थी। एक दिन वह इस गुफामें एकान्त जानकर अपने गीले वस्त्र सुखा रही थी, तभी उसकी दृष्टि एक कोनेमें बैठे हुए रथनेमिके ऊपर गयी जो अत्यन्त कामुक दृष्टिसे राजुलकी ओर निहार रहा था। रथनेमि नेमिनाथका लघुभ्राता था और वह मुनि-दीक्षा लेकर साधु बन गया था। किन्तु एकान्तमें राजलके यौवन और सौन्दर्यको देखकर वह कामविह्वल हो उठा और उसने राजुलसे काम-याचना की। राजुल अविचल निष्ठासे अपने कठोर व्रतोंके पालनमें दत्तचित्त थी। किसी पुरुषकी उपस्थितिको जानकर उसने अपनी शाटिका व्यवस्थित की और मुनि रथनेमिके स्थितिकरणके लिए उपदेश दिया। रथनेमि अपने कृत्यपर अत्यन्त लज्जित हुआ और प्रायश्चित्त लेकर अपनी साधनामें पुनः दत्तचित्त हो गया।
इस गुफामें बायीं ओर दोवारमें राजुलकी शृंगारविभूषित खड़ी मूर्ति है। इसके निकट रथनेमिकी मूर्ति बनी हुई हैं। यह उपर्युक्त कथानकके अनुरूप है। ये मूर्तियाँ आधुनिक हैं और श्वेताम्बरोंने यहां रख दी हैं।
इस गुफासे आगे बढ़नेपर दिगम्बर जैन धर्मशाला है तथा इसके कुछ आगे एक अहातेमें ३ मन्दिर और एक छतरी है । एक मन्दरियामें सलेटी वर्णको ४ फुट ऊंची खड्गासन मूर्ति है। यह मूर्ति बाहुबलि स्वामीकी है। इसके नाक, ओठ काफी घिसे हुए हैं।