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गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ
१६१ इसी घटनाके सम्बन्धमें कविवर वृन्दावनने भी लिखा है
"संघ सहित श्री कुन्दकुन्दगुरु वन्दन हेत गये गिरनार । वाद पर्यो तहं संशयमतिसों साखी वदी अम्बिकाकार। 'सत्यपंथ निर्ग्रन्थ दिगम्बर' कही सुरी तहं प्रकट पूकार,
सो गुरुदेव बसौ उर मेरे विघन हरण मंगल करतार ॥" नन्दिसंघको गुर्वावली और वृन्दावनके उल्लेखोंमें साधारण-सा अन्तर परिलक्षित होता है। गुर्वावलोमें सरस्वतीको मध्यस्थ बनाकर दिगम्बर पन्थको सत्य घोषित करनेका संकेत है और वृन्दावन अम्बिकाके मुखसे यह घोषणा कराते हैं। दूसरा भेद उनके नामोंमें है। गुर्वावलीमें पद्मनन्दीके साथ यह घटना घटित हुई है, जबकि वृन्दावनको कुन्दकुन्द अभिप्रेत हैं। यद्यपि कुन्दकुन्दका एक नाम पद्मनन्दी भी है । यद्यपि पद्मनन्दी नामके कई आचार्य और भट्टारक भी हो गये हैं । सरस्वतीगच्छके उल्लेखसे गुर्वावलोके पद्मनन्दी कुन्दकुन्दसे भिन्न प्रतीत होते हैं।
गिरनारपर दिगम्बर-श्वेताम्बरोंके एक प्राचीन संघर्षका विवरण 'सुकत सागर' ग्रन्थमें मिलता है। उसमें लिखा है कि "एक बार सेठ पेथड़शाह गिरनारकी यात्राको गये। उससे पहले वहाँ दिगम्बरोंका एक संघ आया हुआ था। उस संघके संघपति दिल्लीके सेठ पूर्णचन्द्रजी अग्रवाल थे। ये शाह 'अलाउद्दीन शाखीन मान्य' थे। पूर्णचन्द्रजीने तीर्थकी वन्दना पहले करनेका आग्रह किया क्योंकि वे पहले आये थे। दूसरे वे इस तीर्थको दिगम्बरोंका बताते थे। उन्होंने कहा, "यदि यह तीर्थ श्वेताम्बरोंका है तो भगवान् नेमिनाथकी मूर्तिपर अंचलिका और कटिसूत्र प्रकट करो।' किन्तु श्वेताम्बर ऐसा नहीं कर सके। उन्होंने कहा, 'भगवान् आभरण सहन नहीं कर सकते।' अन्तमें तय हुआ कि इन्द्रमालकी बोली लगायी जाये। जो ऊंची बोली लगाकर इन्द्रमाल ले ले, वही यात्राका अधिकारी माना जाये। श्वेताम्बरोंने ५१,००० स्वर्ण मुहरोंकी बोली लगाकर इन्द्रमाल ले ली, दिगम्बरी इससे ऊंची बोली नहीं लगा सके। अतः श्वेताम्बरोंने माला ले ली। प्रथम यात्रा श्वेताम्बरोंने की, पश्चात् दिगम्बरोंने यात्रा की।"
इस घटनासे भी यह सिद्ध होता है कि गिरनार क्षेत्रपर दिगम्बरोंका अधिकार था, मूर्ति निराभरण होती थीं और भगवान् नेमिनाथकी मूलनायक मूर्ति भी निराभरण दिगम्बर थी। इन्द्रमालकी बोली बोली जाती थी और उसे दिगम्बर अथवा श्वेताम्बर कोई भी ले सकता था। इन्द्रमालकी ऊंची बोलीसे क्षेत्रका अधिकार सिद्ध नहीं होता, बोली लगानेवालेकी धार्मिकता और धनसम्पन्नता अवश्य सिद्ध होती है।
इस सिद्धक्षेत्रपर आकर दिगम्बर मुनि ध्यान, अध्ययन और तपस्या किया करते थे। जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, यहां भद्रबाहु पधारे थे, धरसेनाचार्य यहाँको चन्द्रगुफामें ध्यान किया करते थे। उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्तको सिद्धान्तका ज्ञान यहीं दिया था। यहां कुन्दकुन्द आदि अनेक दिगम्बर मुनियोंने यात्रा की थी।
ऐसे अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि प्राचीन कालसे यहां दिगम्बर जैन व्यक्तिशः और यात्रा संघके रूपमें यात्राके लिए आते रहे हैं। कविवर रइधूने 'सम्मइजिनचरिउ' नामक अपभ्रंश काव्यकी अन्तिम प्रशस्तिमें हिसार नगरवासी सहजपालके पुत्र सहदेव द्वारा जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा कराने और उस अवसरपर प्रचुर दान देनेका उल्लेख करते हुए लिखा है कि सहजपालके पुत्रोंने गिरनारकी यात्राके लिए चतुर्विध संघ निकाला और उसका कुल आर्थिक भार वहन किया।
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