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________________ १६० भारतके विगम्बर जैन तीर्थ जाये । विशाखाचार्यने उन मुनियोंको इस उन्मार्ग प्रवृत्तिका त्याग करनेकी प्रेरणा की। उनके समझानेसे अनेक मुनियोंने आपत्तिकालमें अपनाये इस उन्मार्गका त्याग कर दिया, किन्तु कुछ मुनि सुविधापरक अभ्यासका त्याग करनेके लिए सहमत नहीं हुए। भगवान् महावीरके निम्रन्थ पन्थमें इस सुविधावादी प्रवृत्तिके कारण भेद हो गया। तीर्थंकरोंके निर्ग्रन्थ मार्गको छोड़कर जो नया पन्थ निकाला, वही श्वेताम्बर सम्प्रदाय कहलाया । अस्तु! ___कलाईपर लटके हुए खण्ड वस्त्रवाली कुछ मूर्तियां मथुरामें मिली थीं। ये मूर्तियां अर्धफालक सम्प्रदायके साधुओंकी थीं। यह सम्प्रदाय अधिक दिन तक नहीं चल पाया। जैसे-जैसे सुविधावादी प्रवृत्ति बढ़ती गयी, वस्त्रका व्यामोह भी बढ़ता गया। फिर वस्त्र कलाईसे कटि तक पहुंचा। उसका आकार-प्रकार और संख्या सब कुछ बढ़ता ही गया। अर्धफालक सम्प्रदायकी मूर्तियाँ अधिक दिनों तक नहीं चलीं। तब केवल दिगम्बर मूर्तियां ही चलती रहीं। सम्भवतः ११-१२वीं शताब्दी तक सभी जैन मूर्तियां दिगम्बर ही बनीं। गिरनारपर भी ११-१२वीं शताब्दीसे पूर्वकी कोई सराग सवस्त्र जैन प्रतिमा नहीं मिलती । इस क्षेत्रपर अत्यन्त प्राचीन कालसे ही दिगम्बर समाजका अधिकार चला आ रहा है। हमें यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि इस क्षेत्रको मान्यता श्वेताम्बर समाजमें भी रही है। इसलिए श्वेताम्बर श्रावकोंने भी यहाँ मन्दिर बनवाये। सम्राट सम्प्रति, वस्तुपाल-तेजपाल आदि द्वारा निर्मित जैन मन्दिर अब तक विद्यमान हैं। किन्तु उनमें भी दिगम्बर मूर्तियां ही विराजमान की गयी थीं। बाद में उन्हें वस्त्राभरणोंसे युक्त बना दिया गया। मुनि जिनविजयजीने 'जैन हितैषी' भाग १३ अंक ६ में लिखा है कि मथुराके कंकाली टोलेमें जो लगभग दो हजार वर्ष प्राचीन प्रतिमाएँ मिली हैं, वे नग्न हैं और उनपर जो लेख हैं, वे श्वेताम्बर कल्पसूत्रको स्थविरावलीके अनुसार हैं। गिरनार क्षेत्रपर सभी प्रतिमाएं नग्न दिगम्बर थीं, बादमें उनपर वस्त्र लांछन लगाया गया। इस सम्बन्धमें १७वीं शताब्दीके श्वेताम्बर विद्वान् पं. धर्मसागर उपाध्यायने 'प्रवचन परीक्षा' नामक ग्रन्थमें लिखा है कि गिरनार और शत्रुजयपर एक समय दोनों सम्प्रदायोंमें झगड़ा हआ और उसमें शासन देवताकी कृपासे दिगम्बरोंकी पराजय हुई। जब इन दोनों तीर्थोपर श्वेताम्बर सम्प्रदायका अधिकार सिद्ध हो गया, तब आगे किसी प्रकारका झगड़ा न हो सके, इसके लिए श्वेताम्बर संघने यह निश्चय किया कि अबसे जो नयी प्रतिमाएं बनवायी जायें, उनके पाद मूलमें वस्त्रका चिह्न बना दिया जाये। दिगम्बरियोंको यह उचित नहीं लगा और उन्होंने अपनी प्रतिमाओंको स्पष्ट नग्न बनाना शुरू कर दिया। इस तरह हम देखते हैं कि सम्प्रति राजा आदिको बनवायी हुई प्रतिमाओंपर वस्त्र लांछन नहीं है और आधुनिक प्रतिमाओंपर है। पूर्वकी प्रतिमाओंपर वस्त्र लांछन भी नहीं है और स्पष्ट नग्नत्व भी नहीं है। इस विवरणसे यह सिद्ध होता है कि पूर्वोक्त विवादके पहले दोनों प्रतिमाओंमें कोई भेद नहीं था। दोनों एक ही जिनालयमें अपनी-अपनी उपासना करते थे। पं. धर्मसागर उपाध्यायने जिस विवादका उल्लेख किया है, उसका संकेत नन्दिसंघकी गुर्वावलीमें भी प्राप्त होता है। उसमें लिखा है "पद्मनन्दी गुरुर्जातो बलात्कारगणाग्रणी। पाषाणघटिता येन वादिता श्रीसरस्वती ॥३६।। उज्जयन्तगिरी तेन गच्छ: सारस्वतो भवेत् । अतस्तस्मै मुनीन्द्राय नमः श्रीपद्मनन्दिने ॥३७॥"
SR No.090099
Book TitleBharat ke Digambar Jain Tirth Part 4
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Pilgrimage, & History
File Size21 MB
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