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गुजरातके दिगम्बर जैन तीर्थ
१५९ "रेवानगरके राज्यका स्वामी, सुजातिका देव नेवुचडनज्जर आया है। वह यदुराजके नगर (द्वारका) में आया है। उसने मन्दिर बनवाया। सूर्य....देव नेमि कि जो स्वर्णसमान रैवत पर्वतके देव हैं, ( उनको) हमेशाके लिए अर्पण किया।"
नेवुचडनज्जरका काल ११४० ई. पू. माना जाता है। अर्थात् आजसे ३००० वर्षसे भी पहले रैवतक पर्वतके स्वामी भगवान् नेमिनाथ माने जाते थे। उस पर्वतकी ख्याति उन्हीं भगवान् नेमिनाथके कारण थी। उस समय द्वारकामें यदुवंशियोंका राज्य था और वहाँपर भगवान् नेमिनाथकी अत्यधिक मान्यता थी। इसीलिए बेबीलोनियाके बादशाहने द्वारकामें नेमिनाथका मन्दिर बनवाया।
गिरनार क्षेत्रपर दिगम्बर समाजका अधिकार
ऊर्जयन्त ( गिरनार, रैवतक ) पर्वत दिगम्बर परम्परामें तीर्थराज माना गया है। सम्मेदशिखरको तो अनादिनिधन तीर्थ माना गया है क्योंकि हुण्डावसर्पिणी कालके कुछ अपवादोंको छोड़कर भूत, भविष्य और वर्तमानके सभी तीर्थंकरोंका निर्वाण इसी पर्वतसे होता है। इनके अतिरिक्त जिन मुनियोंको यहाँसे मुक्ति लाभ हो चुका है, उनकी संख्या ही अनन्त है । इन कारणोंसे सम्मेदशिखरको तीर्थाधिराजकी संज्ञा दी गयी है। किन्तु ऊर्जयन्तगिरिसे ७२ करोड ७०० मुनियोंकी मुक्ति और तीर्थंकर नेमिनाथके दीक्षा, केवलज्ञान और निर्वाण कल्याणक यहाँपर हुए हैं, सम्मेदशिखरको छोड़कर अन्य तीर्थंकरोंसे सम्बन्धित किसी स्थानसे इतने मुनियोंका निर्वाण नहीं हुआ। इस दृष्टिसे तीर्थों में ऊर्जयन्तगिरिका स्थान सम्मेदशिखरके बादमें आता है।
यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि प्राचीन कालमें तीर्थंकर मूर्तियाँ दिगम्बर ही बनती थों । इसलिए सभी तीर्थंकर मूर्तियां दिगम्बर ही मिलती हैं, चाहे वे कायोत्सर्ग मुद्रामें हों अथवा पद्मासनमें, चाहे वे अष्टप्रातिहार्ययुक्त हों अथवा प्रातिहार्य रहित, चाहे वे यक्ष-यक्षिणी सहित हों अथवा एकाकी। जैनेतर साहित्यमें भो जैन तीथंकरों और जैन मुनियोंका जो वर्णन उपलब्ध होता है, उसमें उन्हें दिगम्बर निर्ग्रन्थ (निग्गंठ ) श्रमण और ऊर्ध्वमन्था वातरशना ही बताया है। महावीरका उल्लेख बौद्ध ग्रन्थोंमें निग्गंठ नातपुत्त और उनके मुनियोंका निग्गंठके रूपमें ही सर्वत्र पाया जाता है।
मथुरामें कुषाण कालकी उपलब्ध सभी प्रतिमाएं दिगम्बर हैं। कुछ मूर्तियोंपर श्वेताम्बरीय संघ और गच्छोंके भी नाम अंकित हैं। इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी दिगम्बर मूर्तियों की ही मान्यता थी। मथुराके कंकाली टोलेसे प्राप्त प्रसिद्ध वोद्व स्तूप तथा कुछ आयागपट्टोंमें ऐसी भी कुछ मूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं, जिनमें नग्न साधु हाथमें एक खण्ड वस्त्र लिये हुए हैं और उससे अपनी नग्नताको छिपा रखा है। ऐसी मूर्तियां उस ऐतिहासिक घटना की
ओर संकेत करती हैं, जब बारह वर्षके दुष्कालके समय अन्तिम श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त और बारह हजार मुनियोंको लेकर दक्षिणकी ओर चले गये। बारह वर्ष पश्चात् विशाखाचार्यके नेतृत्वमें मुनि-संघ उत्तर भारतमें लौटा । उन्होंने आकर देखा कि जो मुनि इधर रह गये हैं वे हाथमें डण्डा रखते हैं, घरोंसे आहार लाकर बसतिकामें ग्रहण करते हैं तथा जब वे आहारके लिए जाते हैं तो एक खण्ड वस्त्र कलाईपर लटका लेते हैं, जिससे नग्नता ढंक
१. टाइम्स ऑफ इण्डिया, १९ मार्च, १९३५
"जैन" भावनगर, भा. ३५ अंक १, पृ. २